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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 1-6
उधर पाण्डव वनवास के विचार से गंगा के किनारे बढ़ते हुए कुरुक्षेत्र की ओर अभिमुख होकर यमुना और दृषद्वती पार करते हुए सरस्वती के पास जा निकले। यह इलाका जंगलों से भरा हुआ था, इसे ही कुरु-जांगल कहते थे। सरस्वती का किनारा दक्षिण की ओर जहाँ रेगिस्तान को छूता है, वहीं काम्यक वन था, जो अब कामां कहलाता है। विदुर उसी काम्यक वन में पाण्डवों के पास जा पहुँचे। उन्हें देखकर पहले तो युधिष्ठिर डरे, “कहीं फिर यह कोई अक्ष-द्यूत जैसी उपाधि का संदेश लेकर तो नहीं आया? “कहीं क्षुद्र शकुनि ने कपट से हमारे हथियार हर लेने का ब्यौंत तो नहीं बांधा? भीमसेन, यदि ऐसा हुआ तो क्या होगा? द्यूत की चुनौती पाकर मैं फिर उससे मुंह न मोड़ सकूंगा। कहीं यदि गांडीव चला गया तो सदा के लिए राज्यप्राप्ति से हाथ धोना पड़ेगा।” कुछ देर बार आश्वस्त होकर बैठने पर उन्होंने विदुर से आने का कारण पूछा। विदुर ने बताया, “तुम्हारे चले आने पर धृतराष्ट्र ने मुझसे अपने लिए हितकर बात पूछी। मैंने कहा, “पाण्डवों का हित करने से ही तुम्हारा हित होगा।” किन्तु रोगी को पथ्य अन्न की तरह मेरा यह कहना उसे अच्छा न लगा। कौरवों का नाश निश्चित है। क्रोध से बौखलाकर धृतराष्ट्र ने मुझसे कह दिया, ‘जहाँ मन की साध हो, वहाँ चले जाओ। मुझे अब तुम्हारी सहायता नहीं चाहिए।’ यों धृतराष्ट्र से छुटकारा हुआ तो मैं तुरन्त तुम्हारे पास आया हूँ। मैंने जो सभा में कहा था, वही फिर कहता हूँ। शत्रुओं से सताये जाकर जो क्षमावृत्ति से समय की प्रतीक्षा करता है, वही पृथ्वी का राज्य भोगता है।” युधिष्ठिर ने कहा, “हे विदुर, जैसा कहते हो, मैं वैसा ही करूंगा।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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