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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 5
जो लोग राज्य के लिए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, या किसी आपत्ति में पड़ जाते हैं, उनके भरण-पोषण का भार तुम उठाते हो या नहीं, जो शत्रु युद्ध में पराजित हुआ है, या भय से तुम्हारी शरण में आ गया है, उसकी रक्षा पुत्रवत करते हो या नहीं? सारी पृथ्वी के लिए माता-पिता के समान समभाव रखने वाले तुम स्वयं तो पक्षपात में नहीं पड़ जाते? जब अपने शत्रु को संकट में फंसा हुआ देखते हो, तब तुरन्त उस पर चढ़ाई करते हो या नहीं? ऐसे समय तुम अपनी सेना को अग्रिम वेतन तो बांटते हो और परराष्ट्र से प्राप्त होने वाले रत्नों में सेनापतियों को भाग देते हो या नहीं? “जब तुम शत्रुओं पर चढ़ाई करते हो, उससे पूर्व ही तुम्हारे द्वारा सुप्रयुक्त साम-दाम-दंड-भेद, ये उपाय वहाँ अपना काम करने लगते हैं या नहीं? अपने राष्ट्र को पहले दृढ़ बनाकर पीछे तुम शत्रु पर अभियान करते हो और शत्रु को पराजित करने के बाद उसकी रक्षा तो करते हो? बलमुख्यों के समुचित नेतृत्व में तुम्हारी चतुरंगिणी सेना शत्रु-पक्ष को लूट-पाट द्वारा बाधा तो नहीं पहुँचाती है? जब तुम परराष्ट्र में शत्रुओं से युद्ध करने जाते हो, तब वहाँ की खड़ी फसल (लव) और तैयार फसल (मुष्टि), इन दोनों पर भी अधिकार कर लेते हो या नहीं? स्वराष्ट्र और परराष्ट्र में जहाँ कहीं तुम होते हो, तुम्हारे बहुसंख्यक अंगरक्षक आवश्यक सेवाकार्य और रक्षाकार्य का सम्पादन करते हैं या नहीं? तुम्हारी इच्छा के अनुसार वे तुम्हारे भोजन, अनुलेपन और सुगंधित द्रव्यों की रक्षा तो इस प्रकार करते हैं कि उनमें कोई विष न मिला सके? तुम्हारे लिए राजपुरुष; अन्न के कोष्ठागार, वाहन, राजद्वार की रक्षा, आयुध और विविध स्थानों से आय, इन बातों का प्रबन्ध तुम्हारे अधीन सामंत लोग करते हैं या नहीं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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