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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 5
“अपने आभ्यंतर प्रतीहारों और बाह्य प्रतीहारों से सर्वप्रथम अपने आपको सुरक्षित तो रखते हो? और फिर उन्हें अपने अन्य कुटुम्बियों से एंव आपस में मिल जाने से पृथक तो रखते हो? कहीं दिन का पूर्वार्द्ध भाग पान, द्यूत, क्रीड़ा, प्रमदा आदि व्यसनों में तो तुम नहीं खो देते? कहीं तुम अपनी आय के चौथाई, या आधे, या तीन-चौथाई भाग से अधिक तो व्यय नहीं कर डालते? तुम अपने कुटुम्बियों की, गुरुजनों की वृद्धों की और अपने आश्रित व्यापारी और शिल्पियों की उनके विपद-ग्रस्त होने पर धन-धान्य से निरन्तर सहायता तो करते हो? आय और व्यय विभाग में नियुक्त सब गणक और लेखक नित्य प्रतिदिन के पूर्वाद्ध भाग में हिसाब-किताब (आय-व्यय) का तो ठीक लेखा-जोखा (अनुष्ठान) करते हैं? अर्थ-विभाग में जो अनुभवी (संप्रौढ़) हितैषी और अनुरक्त कर्मचारी हैं, उन्हें भ्रष्टाचार का पूर्व प्रमाण पाये बिना उनके पदों से अलग तो नहीं कर देते? अपने राजकर्मचारियों में उत्तम, मध्यम और अधम कोटियों को पहचान कर जो जिस काम के योग्य है, उसे वहीं नियुक्त तो करते हो? कहीं तुम ऐसे व्यक्तियों को तो राजसेवा में नियुक्त नहीं कर लेते, जो लोभी, चोरी करने वाले, तुम्हारे प्रतिकूल अथवा नाबालिग (अप्राप्त व्यवहार) हैं? कहीं चोर और लोभी राजकर्मचारी, राजकुल के कुमार, अन्तःपुर का स्त्री वर्ग, अथवा तुम स्वयं जनता को आर्थिक दृष्टि से लूटने तो नहीं लगते? “क्या तुम इस बात का ध्यान रखते हो कि तुम्हारे राष्ट्र में खेती करने वाले सब प्रकार पनपते हैं? क्या राष्ट्र में स्थान-स्थान पर जल से भरे हुए बड़े-बड़े तालों का तुमने निर्माण कराया है? कहीं खेती को तुमने दैव के आश्रय पर तो नहीं छोड़ दिया? जिस समय किसानों पर विपत्ति पड़ती है, उस समय तुम उन्हें निःशुल्क भोजन और बीज का तो वितरण करते हो? उस विपत्ति से छुटकारा दिलाने के लिए तुम केवल रुपये सैकड़े व्याज की दर से अनुग्रह-ऋण (तकाबी) का तो प्रबन्ध करते हो? हे तात, कृषि, वाणिज्य और गोरक्षा इन तीनों के संश्रय से ही लोक का सुख बढ़ता है। क्या तुमने अपने राष्ट्र में ईमानदार राजकर्मचारियों द्वारा वार्ता-शास्त्र अर्थात कृषि, वाणिज्य और पशुपालन की समुचित व्यवस्था कर दी है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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