महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 74 के अनुसार दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पुन: द्युतक्रीडा के लिए पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
दुर्योधन द्वारा अर्जुन की वीरता का वर्णन
जनमेजय ने पूछा - ब्रह्मन! जब कौरवों को यह मालूम हुआ कि पाण्डवों की रथ और धन के संग्रह सहित खाण्डवप्रस्थ- जाने की आज्ञा मिल गयी, तब उनके मन की अवस्था कैसी हुई? वैशम्पायनजी कहते हैं- भरतकुल भूषण जनमेजय! परम बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को जाने की आज्ञा दे दी, यह जानकर दु:शासन शीघ्र ही अपने भाई भरतश्रेष्ठ दुर्योधन के पास, जो अपने मन्त्रियों (कर्ण एवं शकुनि) के साथ बैठा था, गया और दु:ख से पीडित होकर इस प्रकार बोला। दु:शासन ने कहा - महारथियों! आप लोगों को यह मालूम होना चाहिये कि हमने बड़े दु:ख से जिस धनराशि को प्राप्त किया था, उसे हमारा बूढ़ा बाप नष्टक कर रहा है। उसने सारा धन शत्रुओं के अधीन कर दिया। यह सुनकर दुर्योधन, कर्ण और सुबलपुत्र शकुनि, जो बड़े ही अभिमानी थे, पाण्डवों से बदला लेने के लिये परस्पर मिलकर सलाह करने लगे। फिर सब ने बड़ी उतावली के साथ विचित्रवीर्य नन्दन मनीषी राजा धृतराष्ट्र के पास जाकर मधुर बाणी में कहा। दुर्योधन बोला - पिताजी! संसार में अर्जुन के समान पराक्रमी धनुर्धर दूसरा कोई नहीं है। वे दो बाहुवाले अर्जुन सहस्र भुजाओं वाले कार्तवीर्य अर्जुन के समान शक्तिशाली हैं। महाराज! अर्जुन ने पहले जो-जो आचिन्य्र साहसपूर्ण कार्य किये हैं, उनका वर्णन करता हूँ, सुनिये। राजन्! पहले राजा द्रुपद के नगर में द्रौपदी के स्वुयंवर के समय धनुर्धरों में श्रेष्ठ अर्जुन ने वह पराक्रम कर दिखाया था, जो दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है। उस समय महाबली अर्जुन ने सब राजओं को कुपित देख तीखे बाणों के प्रहार से उन्हें जहाँ के तहाँ रोक दिया और स्वयं ही सब पर विजय पायी। कर्ण आदि सभी राजाओं को अपने बल और पराक्रम से युद्ध में जीतकर कुन्ती-कुमार अर्जुन ने उस समय शुभलक्षणा द्रौपदी को प्राप्त किया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकाल में भीष्मजी ने सम्पूर्ण क्षत्रिय-समुदाय में अपने बल-पराक्रम से काशिराज की कन्या अम्बिका आदि को प्राप्त किया था। तदन्दर अर्जुन किसी समय स्वयं तीर्थयात्रा के लिये गये। उस यात्रा में ही उन्हों ने नागलोक में पहुँचकर परम सुन्दनरी नाग कन्या उलूपी को उसके प्रार्थना करने पर विधिपूर्वक पत्नी रूप में ग्रहण किया। फिर क्रमश: अन्य तीर्थो में भ्रमण करते हुए दक्षिण दिशा में जाकर गोदावरी, वेष्णा तथा कावेरी आदि नदियों में स्थान किया। दक्षिण समुद्र में तट पर कुमारी तीर्थ में पहुँचकर अर्जुन ने अत्यन्त शौर्य का परिचय देते हुए ग्राहरूपधारिणी पाँच अप्सराओं का बलपूर्वक उद्धार किया। तत्पश्चात् कन्याकुमारी तीर्थ की यात्रा करके वे दक्षिण से लौट आये और अनेक तीर्थों में भ्रमण कर्ते हुए द्वारकापुरी जा पहुँचे। वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से अर्जुन ने सुभद्रा को लेकर रथ पर बिठा लिया और अपनी नगरी इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान किया।[1]
अर्जुन के साहस का वर्णन
महाराज! अर्जुन के साहस का और भी वर्णन सुनिये; उन्होंने अग्निदेव को उनके माँगने पर खाण्डवन वन समर्पित किया था। राजन्! उनके द्वारा उपलब्ध होते ही भगवान अग्नि देव ने उस वन को अपना आहार बनाना आरम्भ किया। राजेन्द्र! जब अग्निदेव खाण्डवन को जलाने लगे, उस समय (अग्निदेव से) रथ, धनुष, बाण और कवच आदि लेकर महान् बल तथा प्रभाव से युक्त सव्यवसाची अर्जुन अपने पराक्रम से उसकी रक्षा करने लगे। खाण्डववन के दाह का समाचार सुनकर देवराज इन्द्र ने मेघों को आग बुझाने की आज्ञा दी। उनकी प्रेरणा से मेघों ने बड़ी भारी वर्षा प्रारम्भु की। यहर देख अर्जुन ने आकाशगामी बाण समूहों द्वारा सब ओर से बादलों को रोक दिया। वह एक अद्वत-सी घटना हुई। मेघों को रोका गया सुनकर इन्द्रप्रस्थ कुपित हो उठे। श्वेत वर्ण वाले ऐरावत हाथी पर आरूढ हो वे समस्तन देवताओं के साथ खाण्डववन की रक्षा के निर्मित्त अर्जुन से युद्ध करने के लिये गये।भारत! उस समय रुद्र, मरुद्रण, वसु, अश्विनी कुमार, आदित्य , साध्येगण, विश्वेरदेव, गन्ध र्व तथा अन्यच देवगण अपने-अपने तेज से देदीप्य मान एवं अस्त्रण-शस्त्रों से सम्प न्नस हो युद्ध के लिये गये। वे सभी देवेश्वर अर्जुन को मार डालने की इच्छा से उन पर टूट पड़े। भारत श्रेष्ठ! कुन्तीकुमार अर्जुन के साथ बार-बार युद्ध करके जब देवताओं ने यह समझ लिया कि इन्हें समरांगण में पराजित करना असम्भुव है, तब वे अर्जुन के बाणों से अत्यन्त- पीड़ित होने के कारण युद्ध से विरत हो गये (भाग खडे़ हुए)। महाराज! प्रलयकाल में जो विनाशसूचक अत्यन्त भयंकर अपशकुन दिखायी देते हैं, वे सभी उस समय प्रत्याक्ष दीखने लगे। तदन्दर सब देवताओं ने एक साथ अर्जुन पर धावा किया; परंतु उस देवसेना को देखकर अर्जुन मन में घबराहट नहीं हुई। वे तुरंत ही तीखे प्राण हाथ में लेकर इन्द्र और देवताओं की ओर देखते हुए प्रलयकाल में सर्वसंहार के काल की भाँति अविचल भाव से खड़े हो गये। राजन्! अर्जुन को मानव समझकर इन्द्र सहित सब देवता उन पर बाण समूहों की बौछार करने लगे। परंतु महातेजस्वीे पार्थ ने शीघ्रतापूर्वक गाण्डीइव धनुष लेकर अपने बाण समूहों की वर्षा से देवताओं के बाणों को रोक दिया। पिताजी! यह देख समस्तक महाबली देवता पुन: कुपित हो गये और उस युद्ध में मरणधर्मा अर्जुन पर नाना प्रकार के अस्त्रि-शस्त्रों की बौधर करने लगे। अर्जुन ने अपने तीखे बाणों द्वारा देवताओं के छोड़े हुए उन अस्त्रर–शस्त्रों के आकाश में ही दो-दो तीन-तीन टुकड़े कर दिये। फिर अधिक क्रोध में भरकर अर्जुन ने अने धुनष को इस प्रकार खींचा कि वह मण्डलकार दिखायी देने लगा ओर उसके द्वारा सब ओर तीखे सायकों की वृष्टि करके सब देवताओं को घायल कर दिया। देवताओं को युद्ध से भागा हुआ देख महातेजस्वीा इन्द्रि ने अत्यकन्तय कुपित हो पार्थ पर बाणों की झड़ी लगा दी। पार्थ ने मनुष्यध होकर भी देवताओं के स्वाीमी इन्द्र को अपने सायकों से बींध डाला। तब देवेश्वथर ने अर्जुन पर पत्थथरों की वर्षा आरम्भभ की। यह देख अर्जुन अत्य्न्तक अमर्ष में भर गये और अपने बाणों द्वारा उन्होंअने इन्द्र की उस पाषाण-वर्षा का निवारण कर दिया। तदनन्दहर देवराज इन्द्र ने सव्यमसाची अर्जुन के पराक्रम की परीक्षा लेने के लिये पुन: उस पाषाण वर्षा को पहले से भी अधिक बढ़ा दिया। यह देख पाण्डु्नन्दअन अर्जुन ने इन्द्र का हर्ष बढ़ाते हुए उस अत्यन्त वेगशालिनी पाषाण वर्षा को अपने बाणों से विलीन कर दिया।[2] तब इन्द्र ने श्वेतवाहन अर्जुन को कुचल डालने की इच्छा से वृक्षों सहित अंगद नामक पर्वत (जो मन्दराचल का एक शिखर है) को दोनों हाथों से उठाकर उनके ऊपर छोड़ दिया। यह देख अर्जुन ने अग्नि के समान प्रज्वलित और सीधे लक्ष्य तक पहुँचने वाले सहस्त्रों वेगशाली बाणों द्वारा उस पर्वत राज को खण्ड-खण्ड कर दिया। साथ ही पार्थ ने उस युद्ध में बलपूर्वक बाण मारकर इन्द्र को स्तब्ध कर दिया। महाराज! तदनन्तर तेज और बल से सम्पन्न वीर धनंजय को युद्ध में जीतना असम्भव जानकर इन्द्र को अपने पुत्र के पराक्रम से वहाँ बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। राजन्! उस समय वहाँ स्वर्ग का कोई भी महायशस्वी वीर, चाहे साक्षात् पजापति ही क्यों न हों, ऐसा नहीं था, जो अर्जुन को जीतने में समर्थ हो सके। तदनन्तर महातेजस्वी अर्जुन अपने बाणों से यक्ष, राक्षस और नागों को मारकर उन्हें लगातार प्रज्वलित अग्नि में गिराने लगे। स्वर्गवासी देवताओं सहित इन्द्र को अर्जुन ने युद्ध से विरत कर दिया, यह देख उस समय कोई भी उनकी ओर दृष्टिपात नहीं कर पाते थे। भारत! जैसे पूर्वकाल में गरुड़ने अमृत के लिये देवताओं को जीत लिया था, उसी प्रकार कुन्तीपुत्र अर्जुन ने भी देवताओं को जीतकर खाण्डवचन के द्वारा अग्निदेव को तृप्त किया। इस प्रकार पार्थ ने अपने पराक्रम से अग्निदेव को तृप्त करके उनसे रथ, ध्वजा, अश्व, दिव्यास्त्र, उत्तम धनुष गाण्डीव तथा अक्षय बाणों से भरे हुए दो तूणीर प्राप्त किये। इनके सिवा अनुपम यश और मयासुर से एक सभावचन भी उन्हें प्राप्त हुआ। राजेन्द्र! अर्जुन के पराक्रम की कथा अभी और सुनिये। उन्होंने उत्तर दिशा में जाकर नगरों और पर्वतों सहित जम्बूद्वीप के नौ वर्षों पर विजय पायी। भरतश्रेष्ठ! उन्होंने समस्त जम्बद्वीप को वश में करके सब राजओं को बलपूर्वक जीत लिया और सब कर लगाकर उनसे सब प्रकार के रत्नों की भेट ले वे पुन: अपनी पुरी को लौट आये। भारत! तदनन्तर अर्जुन ने अपने बड़े भाई महात्मा धर्मराज युधिष्ठिर से क्रतु श्रेष्ठ राजसूर्य का अनुष्ठान करवाया। पिताजी! इस प्रकार अर्जुन ने पूर्वकाल में ये तथा और भी बहुत-से पराक्रम कर दिखाये हैं। संसार में कहीं कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो बल और पराक्रम में अर्जुन की समानता कर सके। देवता, दानव, यक्ष, पिशाच, नाग, राक्षस एवं भीष्म, द्रोण आदि समस्त कौरव महारथी, भूमण्डल के सम्पूर्ण नरेश तथा अन्य धनुर्धर वीर—ये तथा अन्य बहुत-से शूरवीर युद्ध भूमि में अकेले अर्जुन को चारों ओर से घेरकर पूरी सावधानी के साथ खड़े हो जायँ, तो भी उनका सामना नहीं कर सकते। कुरुश्रेष्ठ! मैं साधु शिरोमणि अर्जुन के विषय में नित्य-निरन्तर चिन्तन करते हुए उनके भय से अत्यन्त उद्विग्र हो जाता हूँ। पिताजी! मुझे प्रत्येक घर में सदा हाथ में पाश लिये यमराज की भाँति गाण्डीव धनुष पर बाण चढ़ाये अर्जुन दिखायी देते हैं। भारत! मैं इतना डर गया हूँ कि मुझे सहस्त्रों अर्जुन दृष्टिगोचर होते हैं। यह सारा नगर मुझे अर्जुनरूप ही प्रतीत होता है। भारत! मैं एकान्त में अर्जुन को ही देखता हूँ। स्वप्र में भी अर्जुन को देखकर मैं अचेत और उद् भ्रान्त हो उठता हूँ।[3]
==दुर्योधन द्वारा अर्जुन से डर दिखाकर धृतराष्ट्र को भड़काना
मेरा हृदय अर्जुन से इतना भयभीत हो गया है कि अश्व, अर्थ और अज आदि अकारादि नाम मेरे मन में त्रास उत्पन्न कर देते हैं। तात! अर्जुन के सिवा शत्रुपक्ष के दूसरे किसी वीर से मुझे डर नहीं लगता है। महाराज! मेरा विश्वास है कि अर्जुन युद्ध में प्रहलाद अथवा बलि को भी मार सकते है; अत: उनके साथ किया हुआ युद्ध हमारे सैनिकों को ही संहार का कारण होगा। मैं अर्जुन के प्रभाव को जानता हूँ। इसीलिये सदा दु:ख के भार से दबा रहता हैूँ। जैसे पूर्वकाल में दण्ड कारण्यवासी महापराक्रमी श्रीरामचन्द्र-जी से मारीच को भय हो गया था, उसी प्रकार अर्जुन से मुझे भय हो रहा है। धृतराष्ट्र बोले—बेटा! अर्जुन के महान् पराक्रम को तो मैं जानता ही हूँ। इस पराक्रम का सामना करना अत्यन्त कठिन है। अत: तुम वीर अर्जुन का कोई अपराध न करो। उनके साथ द्यूतक्रीड़ा, शस्त्रयुद्ध अथवा कटु वचन का प्रयोग कभी न करो; क्योंकि इन्हीं के कारण उनका तुम लोगों के साथ विवाद हो सकता है। अत: बेटा! तुम अर्जुन के साथ सदा स्नेहपूर्ण बर्ताव करो। भारत! जो मनुष्य इस पृथ्वी पर अर्जुन के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रखते हुए उनसे सद्व्यवहार करता है, उसे तीनों लोकों में तनिक भी भय नहीं है; अत: वत्स! तुम अर्जुन के साथ सदा स्नहेपूर्ण बर्ताव करो। दुयोधन बोला- कुरुश्रेष्ठ! जूए में हम लोगों ने अर्जुन के प्रति छल-कपट का बर्ताव किया था, अत: आप किसी दूसरे उपाय से उन्हें मार डालें। इसी से हम लोगों का सदा भला होगा। धृतराष्ट्र ने कहा - भारत! पाण्डवों के प्रति किसी अनुचित उपाय का प्रयोग नहीं करना चाहिये। बेटा! तुमने उन सबको मारने के लिये पहले बहुत- से उपाये किये हैं। कुन्ती के पुत्र तुम्हारे उन सभी प्रयत्नों का उल्लंघन करके बहुत बार आगे बढ़ गये हैं; अत: वत्स! यदि तुम अपने कुल और आत्मीय-जनों की जीवनरक्षा के लिये किसी हितकर उपाय का अवलम्बन करना चाहते हो तो मित्र, बन्धु-बान्धव तथा भाइयों सहित तुम अर्जुन के साथ सदा स्नेहपूर्ण बर्ताव करो वैशम्पायनजी कहते हैं - धृतराष्ट्र की यह बात सुनकर राजा दुर्योधन दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार करके विधाता से प्रेरित हो इस प्रकार बोला दुर्योधन बोला- राजन्! देवगुरु विद्वान् बृहस्पतिजी ने इन्द्र को नीति का उपदेश करते हुए जो बात नही है, उसे शायद आपने नहीं सुना है। शत्रुसूदन! जो आपका अहित करते हैं, उन शत्रुओं को बिना युद्ध के अथवा युद्ध करके - सभी उपायों से मार डालना चाहिये। महाराज! यदि हम पाण्डवों के धन से सब राजाओं का सत्कार करके उन्हें साथ ले पाण्डवों युद्ध करें, तो हमारा क्या बिगड़ जायेगा ? क्रोध में भरकर काटने के लिये उद्यत हुए विषधर सर्पों को अपने गले में लटकाकर अथवा पीठ पर चढ़ाकर कौन मनुष्य उन्हें उसी अवस्था में छोड़ सकता है ? तात! अस्त्र-शस्त्रों को लेकर रथ में बैठे हुए पाण्डव कुपित होकर क्रुद्ध विषधर सर्पों की भाँति आप के कुल का संहार कर डालेंगे। हमने सुना है, अर्जुन कवच धारण करके दो उत्तम तूणीर पीठ पर लटकाये हुए जाते हैं। वे बार-बार गाण्डीव धनुष हाथ में लेते हैं और लम्बी साँसें खींचकर इधर-उधर देखते हैं। इसी प्रकार भीमसेन शीघ्र ही अपना रथ जोतकर भारी गदा उठाये बड़ी उतावली के साथ यहाँ से निकलकर गये हैं।[4]
धृतराष्ट्र का पु:न युधिष्ठिर को द्युत क्रीड़ा के लिए बुलाना
नकुल अर्धचन्द्र विभूषित ढाल एवं तलवार लेकर जा रहे हैं। सहदेव तथा राजा युधिष्ठिर ने भी विभित्र चेष्टाओं-द्वारा यह व्यक्त कर दिया है कि वे लोग क्या करना चाहते हैं ? वे सब लोग अनेक शस्त्र आदि सामग्रियों से सम्पन्न रथों पर बैठकर शत्रुपक्ष के रथियों का संहार करने के उदेश्य से सेना एकत्र करने के लिये गये हैं। हमने उनका तिरस्कार किया है, अत: वे इसके लिये हमें कभी क्षमा न करेंगे। द्रौपदी को जो कष्ट दिया गया है, उसे उनमें से कौन चुपचाप सह लेगा ? पुरुषश्रेष्ठ! आपका भला हो, हम चाहते हैं कि वनवास की शर्त रखकर पाण्डवों के साथ फिर एक बार जूआ खेलें। इस प्रकार इन्हें हम अपने वश में कर सकेंगे। जूए में हार जाने पर वे या हम मृगचर्म धारण करके महान् वन में प्रवेश करें और बारह वर्ष तक वन में ही निवास करें। तेरहवें वर्ष में लोगों की जानकारी से दूर किसी नगर में रहें। यदि तेरहवें वर्ष किसी की जानकारी में आ जायँ तो फिर दुबारा बारह वर्ष तक बनवास करें। हम हारें तो हम ऐसा करें और उनकी हार हो तो वे। इसी शर्त पर फिर जूए का खेल आरम्भ हो। पाण्डव पासे फेंककर जूआ खेलें। भरतकुल भूषण महाराज! यही हमारा सबसे महान् कार्य है। ये शकुनि मामा विद्यासहित पासे फेंकने की कला को अच्छी तरह जानते हैं। (हमारी विजय होने पर) हम लोग बहुत-से मित्रों का संग्रह करके बलशाली, दुर्घर्ष एवं विशाल सेना का पुरस्कार आदि के द्वारा सत्कार करते हुए इस राज्य पर अपनी जड़ जमा लेंगे। यदि वे तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास की प्रतिज्ञा पूर्ण कर लेंगे तो हम उन्हें युद्ध में परास्त कर देंगे। शत्रुओं को संताप देने-वाले नरेश! आप हमारे इस प्रस्ताव को पसंद करें। धृतराष्ट्र ने कहा - बेटा! पाण्डव लोग दूर चले गये हों, तो भी तुम्हारी इच्छा हो, तो उन्हें तुरंत बुला लो। समस्त पाण्डव यहाँ आयें और इस नये दाँव पर फिर जूआ खेलें। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! तब द्रोणाचार्य, सोमदत्त, बाहृीक, कृपाचार्य, विदुर, अश्वत्थामा, पराक्रमी युयुत्सु, भूरिश्रवा, पितामह भीष्म तथा महारथी विकर्ण सब ने एक स्वर से इस निर्णय का विरोध करते हुए कहा- ‘अब जूआ नहीं होना चाहिये, तभी सर्वत्र शान्ति बनी रह सकती है'। भावी अर्थ को देखने और समझने वाले सुहृद अपनी अनिच्छा प्रकट करते ही रहे गये; किंतु दुर्योधन आदि पुत्रों कें प्रेम में धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को बुलाने का आदेश दे ही दिया।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 74 भाग 1
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 74 भाग 2
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 74 भाग 3
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 74 भाग 4
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 74 भाग 5
संबंधित लेख
महाभारत सभा पर्व में उल्लेखित कथाएँ
सभाक्रिया पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार मयासुर द्वारा सभा भवन निर्माण
| श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा
| मयासुर का भीम-अर्जुन को गदा और शंख देना
| मय द्वारा निर्मित सभा भवन में युधिष्ठिर का प्रवेश
लोकपाल सभाख्यान पर्व
नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देना
| युधिष्ठिर की दिव्य सभाओं के विषय में जिज्ञासा
| इन्द्र सभा का वर्णन
| यमराज की सभा का वर्णन
| वरुण की सभा का वर्णन
| कुबेर की सभा का वर्णन
| ब्रह्माजी की सभा का वर्णन
| राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य
राजसूयारम्भ पर्व
युधिष्ठिर का राजसूयविषयक संकल्प
| श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ की सम्मति
| जरासंध के विषय में युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्ण की बातचीत
| जरासंध पर जीत के विषय में युधिष्ठिर का उत्साहहीन होना
| श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की बात का अनुमोदन
| युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाना
| जरा राक्षसी का अपना परिचय देना
| चण्डकौशिक द्वारा जरासंध का भविष्य कथन
जरासंध वध पर्व
श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम की मगध यात्रा
| श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा
| श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद
| जरासंध की युद्ध के लिए तैयारी
| जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर का वर्णन
| भीम और जरासंध का भीषण युद्ध
| भीम द्वारा जरासंध का वध
| जरासंध द्वारा बंदी राजाओं की मुक्ति
दिग्विजय पर्व
पाण्डवों की दिग्विजय के लिए यात्रा
| अर्जुन द्वारा अनेक राजाओं तथा भगदत्त की पराजय
| अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पाना
| किम्पुरुष, हाटक, उत्तरकुरु पर अर्जुन की विजय
| भीम का पूर्व दिशा में जीतने के लिए प्रस्थान
| भीम का अनेक राजाओं से भारी धन-सम्पति जीतकर इन्द्रप्रस्थ लौटना
| सहदेव द्वारा दक्षिण दिशा की विजय
| नकुल द्वारा पश्चिम दिशा की विजय
राजसूय पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना
| राजसूय यज्ञ में राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन
| राजसूय यज्ञ का वर्णन
अर्घाभिहरण पर्व
राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम
| भीष्म की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा
| शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन
| युधिष्ठिर का शिशुपाल को समझाना
| भीष्म का शिशुपाल के आक्षेपों का उत्तर देना
| भगवान नारायण की महिमा
| भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ वध
| वराह अवतार की संक्षिप्त कथा
| नृसिंह अवतार की संक्षिप्त कथा
| वामन अवतार की संक्षिप्त कथा
| दत्तात्रेय अवतार की संक्षिप्त कथा
| परशुराम अवतार की संक्षिप्त कथा
| श्रीराम अवतार की संक्षिप्त कथा
| श्रीकृष्ण अवतार की संक्षिप्त कथा
| कल्कि अवतार की संक्षिप्त कथा
| श्रीकृष्ण का प्राकट्य
| कालिय-मर्दन एवं धेनुकासुर वध
| अरिष्टासुर एवं कंस वध
| श्रीकृष्ण और बलराम का विद्याभ्यास
| श्रीकृष्ण का गुरु को दक्षिणा रूप में उनके पुत्र का जीवन देना
| नरकासुर का सैनिकों सहित वध
| श्रीकृष्ण का सोलह हजार कन्याओं को पत्नीरूप में स्वीकार करना
| श्रीकृष्ण का इन्द्रलोक जाकर अदिति को कुण्डल देना
| द्वारकापुरी का वर्णन
| रुक्मिणी के महल का वर्णन
| सत्यभामा सहित अन्य रानियों के महल का वर्णन
| श्रीकृष्ण और बलराम का द्वारका में प्रवेश
| श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर पर विजय
| भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार
| सहदेव की राजाओं को चुनौती
शिशुपाल वध पर्व
युधिष्ठिर को भीष्म का सान्त्वना देना
| शिशुपाल द्वारा भीष्म की निन्दा
| शिशुपाल की बातों पर भीम का क्रोध
| भीष्म द्वारा शिशुपाल के जन्म का वृतांत्त का वर्णन
| भीष्म की बातों से चिढ़े शिशुपाल का उन्हें फटकारना
| श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल वध
| राजसूय यज्ञ की समाप्ति
| श्रीकृष्ण का स्वदेशगमन
द्यूत पर्व
व्यासजी की भविष्यवाणी से युधिष्ठिर की चिन्ता
| दुर्योधन का मय निर्मित सभा भवन को देखना
| युधिष्ठिर के वैभव को देखकर दुर्योधन का चिन्तित होना
| पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने के लिए दुर्योधन-शकुनि की बातचीत
| दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध
| धृतराष्ट्र का विदुर को इन्द्रप्रस्थ भेजना
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दुख और चिन्ता का कारण बताना
| युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन
| दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक का वर्णन
| दुर्योधन को धृतराष्ट्र का समझाना
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र को उकसाना
| द्यूतक्रीडा के लिए सभा का निर्माण
| धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को बुलाने के लिए विदुर को आज्ञा देना
| विदुर और धृतराष्ट्र की बातचीत
| विदुर और युधिष्ठिर बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर आना
| जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद
| द्यूतक्रीडा का आरम्भ
| जुए में शकुनि के छल से युधिष्ठिर की हार
| धृतराष्ट्र को विदुर की चेतावनी
| विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध
| दुर्योधन का विदुर को फटकारना और विदुर का उसे चेतावनी देना
| युधिष्ठिर का धन, राज्य, भाई, द्रौपदी सहित अपने को भी हारना
| विदुर का दुर्योधन को फटकारना
| दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाना
| सभासदों से द्रौपदी का प्रश्न
| भीम का क्रोध एवं अर्जुन को उन्हें शान्त करना
| विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण द्वारा विरोध
| द्रौपदी का चीरहरण
| विदुर द्वारा प्रह्लाद का उदाहरण देकर सभासदों को विरोध के लिए प्रेरित करना
| द्रौपदी का चेतावनी युक्त विलाप एवं भीष्म का वचन
| दुर्योधन के छल-कपटयुक्त वचन और भीम का रोषपूर्ण उद्गार
| कर्ण और दुर्योधन के वचन एवं भीम की प्रतिज्ञा
| द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति
| कौरवों को मारने को उद्यत हुए भीम को युधिष्ठिर का शान्त करना
| धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश
अनुद्यूत पर्व
दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पुन: द्युतक्रीडा के लिए पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध
| गान्धारी की धृतराष्ट्र को चेतावनी किन्तु धृतराष्ट्र का अस्वीकार करना
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन: जुआ खेलना और हारना
| दु:शासन द्वारा पाण्डवों का उपहास
| भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की भीषण प्रतिज्ञा
| विदुर का पाण्डवों को धर्मपूर्वक रहने का उपदेश देना
| द्रौपदी का कुन्ती से विदा लेना
| कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होना
| वनगमन के समय पाण्डवों की चेष्टा
| प्रजाजनों की शोकातुरता के विषय में धृतराष्ट्र-विदुर का संवाद
| शरणागत कौरवों को द्रोणाचार्य का आश्वासन
| धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज