श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी151. धन मांगने वाले भृत्य को दण्ड
अस्तु, बावले भक्तों के यहाँ 'यह मेरा है, यह तेरा है 'का तो हिसाब ही नहीं। जो भी आओ खूब खाओ। जिसे जिस चीज की आवश्यकता हो, ले जाओ। सबके लिये उनका दरवाजा खुला रहता है। वास्तव में उदारता इसी का नाम है। जिसके यहाँ मित्र, अतिथि, स्वजन और अन्य जन बिना संकोच के घर की भाँति रोज भोजन करते हैं, जिसका हाथ सदा खुला रहता है, वही सच्चा उदार है, वही श्री कृष्ण प्रेम का अधिकारी भी होता है। जिसे पैसों से प्रेम है, जो द्रव्य का लोभी है, वह भगवान से प्रेम कर ही कैसे सकता है? वैष्णवों के लिये अद्वैताचार्य जी का घर धर्मशाला ही नहीं किंतु नि:शुल्क भोजनालय भी था ! जो भी आवे जब तक रहना चाहे आचार्य के घर पड़ा रहे। आचार्य सत्कारपूर्वक उसे खिलाते-पिलाते थे। इस उदार वृत्ति के कारण आचार्य पर कुछ कर्ज भी हो गया था। उनके यहाँ बाउल विश्वास नाम का एक भृत्य था। आचार्य के चरणों में उनकी अनन्य श्रद्धा थी और वह उनके परिवार की सदा तन-मन से सेवा किया करता था। वह आचार्य के साथ-साथ पुरी भी जाया करता था। आचार्य को द्रव्य का संकोच होता है, इससे उसे मानसिक दु:ख होता था। उनके ऊपर कुछ ऋण भी हो गया, इसका उसे स्वयं ही सोच था ! पुरी में उसने प्रभु का इतना अधिक प्रभाव देखा। महाराज प्रतापरुद्र जी प्रभु को ईश्वर तुल्य मानते थे और गुरु भाव से उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालने करने के लिये तत्पर रहते थे। विश्वास ने सोचा- 'महाराज से ही आचार्य के ऋण परिशोध के लिये क्यों न कहा जाय? यदि महाराज के कानों तक यह बात पहुँच गयी तो सदा के लिये इनके व्यय का सुदृढ़ प्रबन्ध हो जायेगा। 'यह सोचकर उसने आचार्य से छिपकर स्वयं जाकर महाराज प्रतापरुद्र जी को एक प्रार्थना-पत्र दिया। 'उसमें उसने आचार्य को साक्षात ईश्वर का अवतार बताकर उनके ऋणपरिशोध और व्यय का स्थायी प्रबन्ध कर देने की प्रार्थना की। |