श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी144.श्री प्रकाशानन्द जी का आत्मसमर्पण
इनके बनाये हुए 'श्री चैतन्यचन्द्रामृत', 'श्री वृन्दावनरसामृत', श्री वृन्दावनशतक' और 'श्री राधरससुधानिधि'- ये चार ग्रन्थ पाये जाते हैं, जिनमें हजारों श्लोक हैं। 'श्री चैतन्यचन्द्रामृत' बड़ा ही मधुर काव्य है। उसके बहुत-से छन्द तो इतने भावूपर्ण हैं कि पढ़ते-पढ़ते चित्त नाचने लगता है। इनके एक-एक पद से महाप्रभु के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा प्रकट होती है। इनकी चैतन्य चरणों में बड़ी ही अनोखी और अहैतु की भक्ति थी। श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण चैतन्य के गुणगान करने में ही इन्होंने अपनी कमनीय कविता का सदुपयोग किया है। स्थानाभाव से यहाँ हम इनकी सुन्दर कविताओं को उदधृत नहीं कर सकते। ' चैतन्यचन्द्रामृत' में एक स्थल पर श्री चैतन्य चरणें से अपनी प्रगाढ़ प्रीति प्रदर्शित करते हुए ये कहते हैं- निष्ठां प्राप्ता व्यवह्रतिततिर्लौंकिकी वैदिकी वा 'अत्यन्त ही बलवान किसी गौरवर्ण के चोर ने आकर हमारी लौकिकी और वैदिकी व्यवहार निष्ठा को (संकीर्तन करते समय) जोर-जोर से हंसने, आने तथा नृत्योत्सव में होने वाली लज्जा को और प्राण तथा देह के कारण-स्वरूप जो स्वाभाविक धर्म हैं, उन सभी को जबरदस्ती छीन लिया। अर्थात उस गौरांग चोर ने हमें इन सभी वस्तुओं से रहित बना दिया।' अहा, धन्य है, ऐसे लुटे हुए यात्री को और लूटने वाले चोर को। हम लूटने वाले चोर के और लुटने वाले महाभाग यात्री के चरणों में बार-बार प्रणाम करते हैं। |