श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी138. महाप्रभु वल्लभाचार्य और महाप्रभु गौरांगदेव
श्रीगौरवल्लभभगवत्परायणौ महाप्रभु गौरांगदेव अपने सुमधुर संकीर्तन और उद्दण्ड नृत्य से प्रयागवासी नर-नारियों को पावन और प्रसन्न बनाते हुए कुछ काल तक त्रिवेणीतट के समीप ही रहे। वहाँ जब अधिक भीड़-भाड़ होने लगी, तब आप एकान्त में रहने की इच्छा से दारागंज के समीप दशाश्वमेध घाट के पास आकर रहने लगे। प्रभु की प्रसिद्धि प्रयाग के प्रायः सभी प्रतिष्ठित पण्डितों और धनीमानी सज्जनों के कानों तक पहुँच गयी थी, अतः बहुत-से लोग प्रभु के दर्शन और संकीर्तन देखने की इच्छा से उनके समीप आने लगे। भगवान वल्लभाचार्य ने भी महाप्रभु की प्रशंसा सुनी कि एक गौड़ देशीय युवक संन्यासी अपने भक्तिभावमय संकीर्तन और नृत्य से दर्शकों के मन को चुम्बक की तरह अपनी ओर खींच लेते हैं, तब उनकी भी प्रभु-दर्शनों की इच्छा हुई। ऐसे कृष्ण-भक्त महापुरुष के दर्शनों के लिये आये। आते ही उन्होंने संन्यासी समझकर महाप्रभु के चरणों में प्रणाम किया और एक ओर चुपचाप बैठ गये। महाप्रभु ने भी इनकी ख्याति पहले से ही सुन रखी थी। जब उन्हें पता चला कि ये ही आचार्यशिरोमणि श्रीमद्वल्लभ भट्ट हैं, तब तो वे इनसे लिपट गये और प्रेमालिंगन करते हुए इनके पाण्डित्य तथा प्रभाव की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। तब महाप्रभु ने अपने पास में बैठे हुए रूप और अनूप-इन दोनों भाइयों का आचार्य से परिचय कराया। इन दोनों भाइयों का परिचय पाते ही आचार्य इन्हें आलिंगन करने के लिये इनकी ओर बढ़े। आचार्य को अपनी ओर आते देखकर ये दोनों भाई अत्यन्त ही संकोच के साथ पीछे हटते हुए दीनता के साथ कहने लगे- 'भगवन! आप हमें स्पर्श न कीजिये, हम ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न होने पर भी यवनों के संसर्ग से यवन-प्रायः बन गये हैं। हमारे सभी आचार-व्यवहार अब तक यवनों के-से ही रहे हैं। आप आचार्य हैं, कुलीन ब्राह्मण हैं, पण्डित हैं, लोकपूज्य हैं, हम आपके स्पर्श करने योग्य नहीं हैं- इतना कहते-कहते ये दोनों भाई दूर से ही लेटकर आचार्य-चरणों में प्रणाम करने लगे। आचार्य इनकी इतनी भारी शालीनता, नम्रता और दीनता को देखकर आश्चर्यचकित हो गये और उसी समय श्रीमद्भागवत के 'अहो तब श्वपतोअतो गरीयान' इस श्लोक को गायन करते हुए जल्दी से उनकी ओर दौड़े और उनका प्रेम पूर्वक आलिंगन करते हुए उनके भक्तिभाव की प्रशंसा करने लगे। इसके अनन्तर आचार्य ने महाप्रभु से अपने घर पधारकर भिक्षा करने की प्रार्थना की। प्रभु ने अपने सभी साथियों के सहित आचार्य का निमंत्रण स्वीकार किया और वे अपने सभी भक्तों को साथ लेकर आचार्य के वासस्थान अरैल के लिये चले। यमुना जी को पार करके अरैल के लिये जाना होता है, इसलिये श्री मद्वल्लभाचार्य जी ने उसी समय एक सुन्दर-सी नौका मंगायी और उस पर प्रभु के सभी भक्तों के सहित प्रभु को बिठाकर आप एक ओर बैठ गये। श्री यमुना के मेघवर्ण के श्याम रंग वाले सुन्दर सलिल को देखते ही भावावेश में आकर नौका पर ही प्रभु नृत्य करने लगे। नौका डगमग-करने लगी। सभी भक्त भयभीत हो उठे, किन्तु महाप्रभु अपने भाव को संवरण करने में समर्थ न हो सके, वे नृत्य करते-करते प्रेम में उन्मत्त होकर एकदम बीच यमुना जी की तीक्ष्ण धारा में कूद पड़े। नाव में चारों ओर से हाहाकार मच गया। महाप्रभु का सुवर्ण के समान कान्तियुक्त शरीर यमुना जी के नीले रंग के जल में उछलता और डूबता बड़ा ही भला मालूम होने लगा। महाप्रभु यमुना जी के प्रवाह में बहने लगे। उसी समय मल्लाह जल में कूद पड़े और प्रभु को जिस किसी भाँति पकड़कर नाव पर चढ़ाया। सभी उस पार अरैल पहुँचे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो दोनों ही भगवत्परायण हैं, दोनों ही अपने-अपने भक्तों को अत्यन्त ही प्रिय हैं, दोनों श्री आचार्य माने जाते हैं, दोनों ही भक्तिनिष्ठ हैं और दोनों ही कृष्ण कथागान करने में अत्यन्त ही कुशल हैं- ऐसे महाप्रभु गौरांगदेव और महाप्रभु वल्लभाचार्य मुझ भक्तिविहीन मनुष्य के ऊपर प्रसन्न हों। प्र. द. ब्र.