श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी88. पुरी-गमन के पूर्व
अपने संन्यासी पुत्र के ऐसे प्रेमपूर्ण वचन सुनकर माता का हृदय भी पलट गया। इन प्रेमवाक्यों ने मानो अधीर हुई माता के हृदय में साहस का संचार किया। माता ने दृढ़ता के स्वर में कहा- ‘बेटा! मेरे भाग्य में जैसा बदा होगा, उसे मैं भोगूँगी। मुझे अपना इतना खयाल नहीं था, जितना कि विष्णुप्रिया का। वह अभी निरी अबोध बालिका है, संसारी बातों से वह एकदम अपरिचित है! किंतु भावी प्रबल होती है, अब हो ही क्या सकता है? संन्यास त्यागकर फिर गृहस्थ में प्रवेश करने की पापवार्ता को अपने मुख से निकालकर मैं पापकी भागिनी नहीं बनूंगी। संन्यासी-अवस्था में घर पर रहने से सभी लोग तेरी अवश्य ही निन्दा करेंगे। तेरे वियोग-दु:ख को तो जिस किसी प्रकार मैं सहन भी कर सकती हूँ, किंतु लोगों के मुख से तेरी निन्दा मैं सहन न कर सकूँगी; इसलिये मैं तुझसे घर पर रहने का भी आग्रह नहीं करती। वृन्दावन बहुत दूर है, तेरे वहाँ रहने से भक्तों को भी क्लेश होगा और मुझे भी तेरे समाचार जल्दी-जल्दी प्राप्त न हो सकेंगे। यदि तेरी इच्छा हो और अनुकूल पड़े तो तू जगन्नाथपुरी में निवास कर। पुरी की यात्रा के लिये यहाँ से प्रतिवर्ष हजारों यात्री जाते हैं, भक्त भी रथ यात्रा के समय जाकर तुझसे भेंट कर आया करेंगे और मुझ भी तेरी राजी-खुशी का समाचार मिलता रहेगा। इस प्रकार नीलाचल में रहने से हम सभी को तेरा वियोग-दु:ख इतना अधिक न अखरेगा। आगे जहाँ तुझे अनुकूल पड़े।’ प्रभु ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘जननी! तुम धन्य हो! विश्वरूपी की माता को ऐसे ही वचन शोभा देते हैं। तुमने संन्यासी की माता की माता के अनुरूप ही वाक्य कहे हैं। मुझे तुम्हारी आज्ञा शिरोधार्य है। मैं अब पुरी में ही जाकर रहूँगा और वहीं से कभी-कभी गंगास्नान के निमित्त यहाँ भी आता-जाता रहूंगा।’ इस प्रकार माता ने भी प्रभु को नीलाचल में ही रहने की अनुमति दे दी और भक्तों ने भी रोते-रोते विषण्णवदन होकर यह बात स्वीकार कर ली। प्रभु का नीलाचल जाने का निश्चय हो गया। बहुत-से भक्त प्रभु के साथ चलने के लिये उद्यत हो गये,किंतु प्रभु ने सबको रोक दिया और सबसे अपने-अपने घरों को लौट जाने का आग्रह करने लगे। भक्त प्रभु को छोड़ना नहीं चाहते थे, वे प्रभु के प्रेमपाश में ऐसे बंधे हुए थे कि घर जाने का नाम सुनते ही घबड़ाते थे। प्रभु के बहुत आग्रह करने पर भी जब भक्त प्रभु से पहले अपने-अपने घरों को जाने के लिये राजी नहीं हुए तब प्रभु ने पहले स्वयं ही नीलाचल के लिये प्रस्थान करने का विचार किया। इतने दिनों तक अद्वैताचार्य के आग्रह से टिके हुए थे, अब रोते-रोते अद्वैताचार्य ने भी सम्मति दे दी। प्रभु के साथ नित्यानन्दजी, जगदानन्द पण्डित, दामोदर पण्डित और मुकुन्ददत्त- ये चार भक्त जाने के लिये तैयार हुए। आचार्य देव के आग्रह से प्रभु ने भी इन्हें साथ चलने की अनूमति प्रदान कर दी। |