श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी81. गौरहरि का संन्यास के लिये आग्रह
कुलं च मानं च मनोरमांश्च गंगापार करके प्रभु मत्त गजेन्द्र की भाँति द्रुत गति से महामहिम केशव भारती की कुटिया के लिये कटवा-ग्राम की ओर चले। कटवा या कण्टक-नगर गंगा जी के उस पार एक छोटा-सा ग्राम था। ग्राम से थोड़ी दूर पर श्रीगंगा जी के ठीक किनारे पर एक बड़ा भारी वटवृक्ष था। उस वटवृक्ष के नीचे एक कुटिया बनाकर संन्यासिप्रवर स्वामी केशव भारती निवास करते थे। भारती महाराज विरक्त और भगवद्भक्त थे। ग्राम के सभी स्त्री-पुरुष उनका अत्यधिक आदर करते थे। उनकी कुटिया के नीचे ही गंगा जी का सुन्दर घाट था। ग्रामवासी उसी घाट पर स्नान करने और जल भरने आया करते थे। भारती की कुटिया के चारों ओर बड़ा ही सुन्दर आम के वृक्षों का बगीचा था। भारती जी अपने लिपे-पुते स्वच्छ आश्रम के चबूतरे पर धूप में आसन बिछाये बैठे थे। चारों ओर से आमों के मौर की भीनी-भीनी गन्ध आ रही थी। दूर से ही उन्होंने प्रभु को अपने आश्रम की ओर आते देखा। वे प्रभु की उस उन्मत्त चालको देखकर विस्मित-से हो गये और मन-ही-मन सोचने लगे- ‘यह अद्भुत रूप-लावण्ययुक्त युवक कौन है? इसके मुखमण्डल पर दिव्य प्रकाश आलोकित हो रहा है। मालूम पड़ता है साक्षात देवराज इन्द्र युवक का रूप धारण करके मेरे पास आये हैं, या ये दोनों अश्विनीकुमारों में से कोई एक हैं, अपने भाई को अपने से बिछुड़ा देखकर उन्हें ढुंढ़ने के निमित्त मेरे आश्रम की ओर आ रहे हैं। या ये साक्षात श्रीमन्नारायण हैं, जो मुझे कृतार्थ करने और दर्शन देने इधर आ रहे हैं।’ भारती जी मन-ही-मन यह सोच ही रहे थे कि इतने में ही गीले वस्त्रों के सहित प्रभु ने भूमि पर पड़कर भारती के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। भारती जी सम्भ्रम के साथ ‘नारायण, नारायण’ कहने लगे। प्रभु बहुत देर तक भारती जी के चरणों में पड़े ही रहे। प्रेम के कारण उनके सम्पूर्ण शरीर में रोमांच हो रहे थे। दोनों नेत्रों में से अश्रु बह रहे थे। लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ते हुए प्रभु जोरों से उसास ले रहे थे। भारतीजी ने उन्हें उठाते हुए पूछा- ‘भाई! तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? इतने व्याकुल क्यों हो रहे हो? अपने दु:ख का कारण बताओ?’ भारती जी के प्रश्नों को सुनकर प्रभु उठकर बैठ गये और धीरे-धीरे कहने लगे- ‘भगवन! आपने मुझे पहचाना नहीं? मेरा नाम निमाई पण्डित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो अपने कुल को, मान-सम्मान को, सुन्दर पत्नी को, भक्तों को और रोती हुई माता को छोड़कर संसार में प्रेम को प्रकट करके उसके प्रकाशन के निमित्त वनवासी वैरागी बन गये ऐसे गौरहरि भगवान हम पर प्रसन्न हों। प्र. द. ब्र.