श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी51. अद्वैताचार्य को श्यामसुन्दररूप के दर्शन
श्रीवास के ऐसे उत्तर से संतुष्ट होकर प्रभु कहने लगे- ‘पण्डित जी! आप तो सब कुछ जानते हैं, मनुष्य की प्रकृति सदा एक-सी नहीं रहती। वह कभी कुछ सोचता है और कभी कुछ। जब मेरी उन्माद की-सी अवस्था हो जाती है, तब उसमें न जाने मैं क्या-क्या बक जाता हूँ, उसका स्मरण मुझे स्वयं ही नहीं रहता। मैंने अपनी उन्मादावस्था में आचार्य से कुछ कह दिया होगा, उसका स्मरण मुझे अब बिलकुल नहीं है। यह सुनकर कुछ दीनता के भाव से श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो! आप हमारी हर समय क्यों वंचना किया करते हैं, लोगों को जब उन्माद होता है, तो उनसे अन्य लोगों को बड़ा भय होता है। लोग उनके समीप जाने तक में डरते हैं, किंतु आपका उन्माद तो लोगों के हृदयों में अमृत-सिंचन-सा करता है। भक्तों को उससे बढ़कर कोई दूसरा आनन्द ही प्रतीत नहीं होता। क्या आपका उन्माद सचमुच में उन्माद ही होता है? यदि ऐसा हो तो फिर भक्तों को इतना अपूर्व आनन्द क्यों होता है? आप में सर्वसामर्थ्य है। आप जिस समय जैसा चाहें रूप दिखा सकते हैं।’ प्रभु ने कहा- ‘पण्डित जी! सचमुच में आप विश्वास कीजिये, किसी को कोई रूप दिखाना मेरे बिलकुल अधीन नहीं है। किस समय कैसा रूप बन जाता है, इसका मुझे स्वयं पता नहीं चलता। आप कहते हैं, आचार्य श्यामसुन्दररूप के दर्शन करना चाहते हैं। यह मेरे हाथ की बात थोड़े ही है। यह तो उनकी दृढ़भावना के ही ऊपर निर्भर है। उनकी जैसे रूप में प्रीति होगी, उसी भाव के अनुसार उन्हें दर्शन होंगे। यदि उनकी उत्कट इच्छा है, यदि यथार्थ में वे श्यामसुन्दररूप का ही दर्शन करना चाहते हैं तो आँखें बन्द करके ध्यान करें, बहुत सम्भव है, वे अपनी भावना के अनुसार श्यामसुन्दर की मनोहर मूर्ति के दर्शन कर सकें। प्रभु की ऐसी बात सुनकर आचार्य ने कुछ संदेह और कुछ परीक्षा के भाव से आँखें बंद कर लीं। थोड़ी ही देर में भक्तों ने देखा कि आचार्य मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े हैं। लोगों ने उनके शरीर को स्पर्श करके देखा तो उसमें चेतना मालूम ही न पड़ी। श्रीवास पण्डित ने उनकी नासिका के छिद्रों पर हाथ रखा, उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, मानो उनकी साँस चल ही नहीं रही है। इन सब लक्षणों से तो यही प्रतीत होता था कि उनके शरीर में प्राण नहीं है, किंतु चेहरे की कान्ति समीप के लोगों को चकित बनाये हुए थी। उनके चेहरे पर प्रत्यक्ष तेज चमकता था। सम्पूर्ण शरीर रोमांचित हो रहा था। सभी भक्त उनकी ऐसी अवस्था देखकर आश्चर्य करने लगे! श्रीवास पण्डित ने घबड़ाहट के साथ प्रभु से पूछा- ‘प्रभो! आचार्य की यह कैसी दशा हो गयी? न जाने क्यों वे इस प्रकार मूर्च्छित और संज्ञाशून्य-से हो गये?’ |