कभी रोते-रोते अपने विद्यार्थियों तथा साथियों से कहते- ‘भैया! तुम लोग अब अपने-अपने घर जाओ। अब हम लौटकर घर नहीं जायँगे, हम तो अब श्रीकृष्ण के पास वृन्दावन में ही जाकर रहेंगे। हमारी माता को हमारा हाथ जोड़कर प्रणाम कहना और कह देना तेरा निमाई तो पागल हो गया है।’ इनके सभी साथी इनकी ऐसी अलौकिक दशा देखकर चकित रह गये और इनका भाँति-भाँति से प्रबोध करने लगे, किन्तु ये किसी की मानते ही नहीं थे। इस प्रकार रुदन तथा प्रलाप में रात्रि हो गयी। सभी साथी तथा शिष्यगण सुख की नींद में सो गये, किन्तु इन्हें नींद कहाँ? सुखी संसार सुखरूपी मोह-निशा में शयन कर सकता है, किन्तु जिनके हृदय में विरह-वेदना की तीव्र ज्वाला उठ रही है, उनके नयनों में नींद कहाँ? सबके सो जाने पर ये जल्दी से उठ खड़े हुए और रात्रि में ही रुदन करते हुए व्रज की ओर दौड़े। इनके प्राण श्रीकृष्ण से मिलन के लिये छटपटा रहे थे। इन्होंने साथी तथा शिष्यों की कुछ भी परवा न की और घोर अन्धकार में अकेले ही अलक्षित स्थान की ओर चल पड़े। ये थोड़ी दूर ही चले होंगे कि इन्हें मानो अपने हृदय में एक दिव्य वाणी सुन पड़ी। इन्हें भास हुआ मानो कोई अलक्षित भाव से कह रहा है- ‘तुम्हारा व्रज में जाने का अभी समय नहीं आया है, अभी कुछ काल और धैर्य धारण करो। अभी अपने सत्संग से नवद्वीप के भक्तों को आनन्दित करके प्रेमदान करो। योग्य समय आने पर ही तुम व्रज में जाना।’ आकाशवाणी का आदेश पाकर ये लौटकर अपने स्थान पर आ गये और आकर अपने आसर पर पड़ गये।