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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
47. गीता में बंध और मोक्ष का स्वरूप
यह स्वयं (जीवात्मा) प्रकृति के संबंध के बिना कुछ भी सांसारिक काम नहीं कर सकता। जब कुछ कर ही नहीं सकता, तो फिर यह (प्रकृति के संबंध के बिना) बंधन में पड़ ही नहीं सकता। प्रकृति के संबंध के बिना कुछ भी नहीं कर सकने के कारण इस पर करने की जिम्मेवारी भी नहीं रहती और इसमें कर्तृत्व भी नहीं रहता। अतः गीता ने जगह-जगह इसको अकर्ता बताया है।[1] प्रकृति के साथ माने हुए संबंध को तोड़ने के तीन उपाय हैं- 1. कर्मयोग- कर्मयोग के द्वारा बंधन से मुक्त होने का तरीका यह है कि मनुष्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से जो कुछ करता है, उसको केवल लोकसंग्रह के लिए, कर्तव्य-परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए, मनुष्यों को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लगाने के लिए, प्राणि मात्र का हित करने के लिए ही करे, अपने लिये न करे।[2] ऐसा करने से उसको अपनी असंगता का, अपने स्वरूप का बोध हो जाएगा। 2. ज्ञानयोग- ज्ञानयोग के द्वारा बंधन से छूटने का तरीका यह है कि मनुष्य सत्-असत्, नित्य-अनित्य के विवेक द्वारा असत् (शरीर-आदि) से अपने आपको अलग अनुभव कर ले। ऐसा करने से वह मोक्ष पा लेता है, बंधन से रहित हो जाता है।[3] 3. भक्तियोग- भक्तियोग के द्वारा बंधन से मुक्त होने का तरीका यह है कि मनुष्य अपने सहित संसार मात्र को भगवान् का ही मानकर केवल भगवान् की प्रसन्नता के लिए ही सब कार्य करे, सब कुछ भगवान् के ही अर्पण करे। ऐसा करने से वह सांसारिक बंधन से मुक्त हो जाता है।[4] वास्तव में बंधन है ही नहीं! अगर वास्तव में बंधन होता तो उसका कभी अभाव नहीं होता- ‘नाभावो विद्यते सतः’[5] और जीव कभी बंधन से मुक्त नहीं होता। परंतु वास्तव में यह बंधन स्वयं का किया हुआ है, माना हुआ है। अतः यह जब चाहे, तब बंधन को छोड़ सकता है। बंधन को छोड़ने में यह स्वतंत्र है, सबल है, समर्थ है, योग्य है, अधिकारी है। अतः गीता कहती है कि पापी से पापी मनुष्य भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है[6] और दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी अनन्यभाव से भगवान् का भजन कर सकता है[7] अतः किसी देश का, किसी वेश का, किसी वर्ण का, किसी संप्रदाय का कैसा ही व्यक्ति (स्त्री या पुरुष) क्यों न हो, वह संसार के बंधन से रहित हो सकता है, मोक्ष प्राप्त कर सकता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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