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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
47. गीता में बंध और मोक्ष का स्वरूप
सभी साधक अपने-अपने संप्रदाय के अनुसार द्वैत, अद्वैत, विशिष्टा द्वैत, अचिन्त्य भेदाभेद, द्वैताद्वैत आदि किसी एक धारणा को लेकर पारमार्थिक मार्ग पर चलते हैं, और उस धारणा के अनुसार ही वे परमात्मतत्त्व का, अपने स्वरूप का अनुभव करते हैं। परंतु उन सबका परिवर्तनशील संसार से संबंध-विच्छेद हो जाता है। संबंध विच्छेद होने पर उनके लिए संसार की स्वतंत्र सत्ता नहीं रहती क्योंकि वास्तव में संसार की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। भगवान् ने अपरा (जड़) और परा (चेतन)- दोनों को अपनी प्रकृति बताया है। अपरा प्रकृति में निरंतर परिवर्तन होता है, वह कभी एकरूप नहीं रहती और परा प्रकृति परिवर्तनहित है। परा प्रकृति परमात्मा से अभिन्न हैं अतः वह चाहे भिन्न होकर लीला करे, चाहे अभिन्न रहे, परमात्मा के सिवाय उसकी कोई अलग (स्वतंत्र) सत्ता नहीं होती। लीला के कारण उसमें द्वैतपना दीखता है, पर वास्तव में अद्वैत ही रहता है। उसका परमात्मा से नित्ययोग रहता है। तात्पर्य है कि प्रेम रस की अनुभूति के लिए परा प्रकृति परमात्मा से अलग होकर लीला करती है, पर वास्तव में वह अलग नहीं होती। इस विषय में आचार्यों में मतभेद है। कई आचार्य अद्वैत मानते हैं, कई द्वैत मानते हैं, कई द्वैताद्वैत मानते हैं, कई विशिष्टताद्वैत मानते हैं, आदि-आदि। उन आचार्यों के मत के, मान्यता के, संप्रदाय के अनुसार साधकों की साधना चलती है अर्थात् कई साधक द्वैत मानकर चलते हैं और कई साधक अद्वैत आदि मानकर चलते हैं, पर वास्तविक अनुभव होने पर पहले जैसी मान्यता थी, वैसी नहीं रहती। साधक को उस मान्यता से विलक्षण तत्त्व मिलता है। जैसे, किसी ने बद्रीनारायण के जाने का विचार किया तो वह बद्रीनारायण के विषय में (सुने हुए के अनुसार) की कल्पनाएँ करने लगता है कि वहाँ ऐसा मंदिर होगा, मंदिर के पास में अलकनन्दा बहती होगी, बर्फ के पहाड़ होंगे आदि-आदि। पर जब वह वहाँ जाकर देखता है तो उसको वैसा नहीं मिलता, जैसा कल्पना में था, प्रत्युत उससे विलक्षण ही मिलता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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