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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग रामकली(166) पाँड़ेजी भोग नहीं लगा पाते। जब-जब वे खीर बनाकर (अपने आराध्य को) अर्पित करते हैं, तभी-तभी मोहन उसे छू आता है। (इससे माता डाँटने लगीं-) ‘मैंने तो बड़ी उमंग से ब्राह्मण को निमन्त्रण दिया और श्याम! तू उन्हें चिढ़ाता है? वे अपने ठाकुरजी को भोग लगाते हैं, तब तू यों ही उठकर दौड़ पड़ता है।’ (यह सुनकर मोहन बोले-) ‘मैया! तू मुझे क्यों दोष दे रही है, वह ब्राह्मण (स्वयं) बड़े विधि-विधान से मेरा ध्यान करता है। नेत्र बंद करके, हाथ जोड़कर बार-बार नाम लेकर मुझे बुलाता है। भला, बता-जो भक्त मेरे मन को भा जाता है, उससे मुझमें अन्तर कैसे रहे? (मैं उससे दूर कैसे रह सकता हूँ।)’ सूरदास तो इस लीला पर बार-बार न्योछावर है (प्रभो! मुझे तो यही वरदान दो कि) जन्म-जन्म में तुम्हारे ही यश का गान करूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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