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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री(66) (कन्हाई को ) चलते देखकर माता यशोदा आनन्दित होती हैं। वे पृथ्वी पर ठुमुक-ठुमुककर (रुक-रुककर) चरण रखकर चलते हैं और माता को देखकर उसे (अपना चलना) दिखलाते हैं (कि मैया! अब मैं चलने लगा) देहली तक चले जाते हैं और फिर बार-बार इधर ही (घर में) लौट आते हैं। (देहली लाँघने में) गिर-गिर पड़ते हैं, लाँघते नहीं बनता, इस क्रीड़ा से वे देवताओं और मुनियों के मन में भी संदेह उत्पन्न कर देत हैं (कि यह कैसी लीला है?) जो करोड़ों ब्रह्माण्डों को एक क्षण में निर्माण कर देते हैं और फिर उनको नष्ट करने में भी देर नहीं लगाते, उन्हें अपने साथ लेकर श्रीनन्दरानी नाना प्रकार के खेल खेलाती हैं। (जब देहरी लाँघते समय गिर पड़ते हैं) तब श्रीयशोदाजी हाथ पकड़कर श्यामसुन्दर को धीरे-धीरे देहली पार कराती हैं। सूरदास के स्वामी को देख-देखकर देवता, मनुष्य और मुनि भी अपनी बुद्धि विस्मृत कर देते हैं (विचार-शक्ति खोकर मुग्ध बन जाते हैं)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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