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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग कान्हरौ(113) (माता पश्चाताप करती कहती है-) ‘कौन-सा उपाय करके अब मैं कन्हाई को समझा सकूँगी। भूल मुझसे ही हुई जो मैंने (इसे) चन्द्रमा दिखलाया, अब यह कहता है कि उसे मैं खाऊँगा। (फिर श्याम से कहती हैं-) ‘कन्हाई! जो बात न हो सकती हो, वह कहीं हुई है; ऐसी बात तो न कभी देखी और न सुनी ही (कि किसी ने चन्द्रमा को खाया हो)। यह तो सबका खिलौना है, लाल! तुम उसे खाने को कहते हो? (यह तो ठीक नहीं है।) यही प्रत्येक दिन प्रात-सायं क्षण-क्षणपर मुझे मक्खन देता है और तुम मुझसे बार-बार मक्खन माँगते हो। (जब इसी को खा डालोगे,) तब प्यारे लाल! तुम्हें मैं मक्खन कहाँ सू दूँगी? हठ मत करो, इस चन्द्रमारूपी खिलौने को बस, देखते रहो (यह देखा ही जाता है, खाया नहीं जाता)।’ सूरदासजी कहते हैं कि यशोदाजी श्यामसुन्दर को गोद में लिये हँस रही हैं और श्रीनन्दजी से समझाकर (मोहन की हठ) बता रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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