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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग ललित(126) श्रीयशोदाजी बार-बार कहती हैं-‘गोपाललाल, जागो! आनन्द की निधि प्यारे नन्दनन्दन! सबेरा हो गया। तुम्हारे नेत्र कमल-दल के समान विशाल हैं, प्रेमरूपी बावली के ये हंस हैं, तुम्हारे सुन्दर मुखपर तो करोड़ों कामदेव न्योछावर कर दिये। देखो, अरुणोदय हो रहा है, रात्रि बीत गयी, चन्द्रमा की किरणें क्षीण हो गयीं, दीपक अत्यन्त मलीन (तेजहीन) हो गये, सभी तारों का तेज घट गया; मानो ज्ञान का दृढ़ प्रकाश होने से संसार के सब भोग-विलास छूट गये, आशा और भयरूपी अन्धकार को संतोषरूपी सूर्य की किरणों ने भस्म कर दिया हो। पक्षियों का समूह खुलकर मधुर स्वर में बोल रहा है, इसे विश्वास करके सुनो। मेरे लाल! तुम तो मेरे परम प्राण और जीवनधन हो। (देखो पक्षियों का स्वर ऐसा लगता है) मानो वन्दीजन वेद-पाठ करते हों, सूतवृन्द और मागधों का समूह, हे कैटभारि! तुम्हारा सुयश गान करता है और बार-बार जय-जयकार कर रहा है। कमलों का समूह खिलने लगा है, भ्रमरों का झुंड सुन्दर कोमल स्वर से गुंजार रकता कमलों को छोड़कर अलग चल पड़ा है। मानो वैराग्य पाकर समस्त शोक और घर को छोड़कर तुम्हारे सेवक तुम्हारा गुणगान करते प्रेममत्त घूम रहे हों।’ (माता के) प्यारे रसमय वचन सुनकर अत्यन्त दयालु प्रभु जग गये। (उनके नेत्र खोलते ही जगत् के) सब जंजालों का फंदा दूर हो गया, दुःखों का समूह नष्ट हो गया। सूरदास ने उनके मुखारविन्द का दर्शन करके अज्ञान के सब फंदे, सब द्वन्द्व त्याग दिये। अब मेरा भारी मद (अहंकार) प्रभु ने मिटा दिया, मुझे अत्यन्त आनन्द हो रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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