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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री(114) ‘(मेरे अच्छे) लाल! ऐसी हठ नहीं करनी चाहिये। मधु, मेवा, पकवान तथा मिठााइयों में तुम्हें जो अच्छा लगे, वह ले लो। तुरंत का निकाला मक्खन है, सजाव (भली प्रकार जमा) दही है, घी है, (इन्हें लो) और मीठा दूध पीओ। मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, अब अधिक हठ मत करो; क्रोध करने से शरीर दुर्बल होता है।’ (यह कहकर माता) कुछ दूसरी बातें सुनाती है, कुछ अन्य वस्तुएँ दिखाती हैं, फिर भी उनका बालक उनकी बात का विश्वास नहीं करता (वह मान बैठा है कि मैया चन्द्रमा दे सकती है पर देती नहीं है)। कन्हैया गोद से (मचलकर) बार-बार खिसका पड़ता है, सिसकारी मार-मारकर मन-ही-मन खीझ रहा है। तब माता ने जल से भरा बर्तन लाकर आँगन में रखा और बोलीं-‘मोहन लो! इसे तनिक अब (तुम स्वयं) पकड़ो तो।’ सूरदासजी कहते हैं कि श्याम तो हठपूर्वक चन्द्रमा को माँग रहा है; भला, उसे कोई कहाँ से दे सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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