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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग कान्हरौ(325) (गोपबालक कहते हैं-) ‘गोपाल! इस बार रक्षा कर लो। इस समय दसों दिशाओं में असह्य दावाग्नि प्रकट हो गयी है। बाँस पटापट शब्द करते फट रहे हैं, जलते कुश एवं काश से चटचटाहट हो रही है, ताल और तमाल के (बड़े) वृक्ष भी (जलकर) गिर रहे हैं। बहुत अधिक चिनगारियाँ उछल रहीं हैं, फल फूट रहे हैं और दारूण लपटें फैल रही हैं। धुएँ का अन्धकार पृथ्वी से आकाश तक बढ़ गया है, उसके बीच-बीचर में ज्वाला चमक रही है। हरिन, सूअर, मोर, पपीहे, कोयल आदि जीव बड़ी दुर्दशा के साथ भस्म हो रहे हैं।’ (यह सुनकर) श्रीनन्दलाल हँसकर बोले-‘अपने चित्त में डरो मत! सब लोग नेत्र बंद कर लो।’ सूरदासजी कहते हैं कि सब अग्नि मेरे प्रभु के मुख में प्रविष्ट हो गयी, उन्होंने व्रज के बालकों को निर्भय कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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