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श्रीकृष्ण बाल माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिलावल(40) श्रीयशोदाजी मन में अभिलाषा करती हैं-‘मेरा लाल कब घुटनों के बल सरकने लगेगा। कब पृथ्वी पर वह दो पग रखेगा। कब मैं उसके दूध के दो दाँत देखूँगी। कब उसके मुख से तोतली बोली निकलने लगेगी। कब व्रजराज को ‘बाबा’ कहकर बुलावेगा, कब मुझे बार-बार ‘मैया-मैया’ कहेगा। कब मोहन मेरा अंचल पकड़कर चाहे जो कुछ कहकर (अटपटी माँगे करता) मुझसे झगड़ा करेगा। कब कुछ थोड़ा-थोड़ा खाने लगेगा। कब अपने हाथ से मुख में ग्रास डालेगा। कब हँसकर मुझसे बात करेगा, जिस शोभा से दुःखका हरण कर लिया करेगा।’ (इस प्रकार अभिलाषा करती माता) श्यामसुन्दर को अकेले आँगन में छोड़कर कुछ काम से स्वयं घर मं चली गयी। इसी बीच में एक अंधड़ उठा, उसमें इतनी गर्जना हो रही थी कि पूरा आकाश घहरा रहा (गूँज रहा) था। सूरदासजी कहते हैं कि व्रज के लोग जो जहाँ थे, वहीं उस ध्वनि को सुनते ही अत्यन्त डर गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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