श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी146. प्रभु का पुरी में भक्तों से पुनर्मिलन
राय ने कुछ प्रेम पूर्वक भर्त्सना के स्वर में कहा- 'क्यों जी, सुनाते क्यों नहीं? देखे प्रभु भी कह रहे हैं। प्रभु की आज्ञा नहीं मानते? हाँ, पहले विदग्धमाधव का मंगलाचरण सुनाइये।' नान्दी के मुख से भगवान की धीरे 'विदग्धमाधव' का मंगलाचरण पढ़ने लगे- श्लोको सुनते ही सभी एक स्वर में 'वाह! वाह! करने लगे। श्री रूपजी का लज्जा के कारण मुख लाल पड़ गया, वे नीचें की ओर देख रहे थे। इस पर राय ने कहा- 'रूप जी! आप तो बहुत ही अधिक संकोच करते हैं। इसीलिये, लीजिये मैं आपके काव्य की प्रशंसा ही नहीं करता। अच्छा, तो यह तो भगवान की वन्दना हुई। अब भगवत-स्वरूप जो गुरुदेव हैं, जो कि प्राणियों के एकमात्र भजनीय और इष्ट हैं, भगवत-वन्दा के अनन्तर उनकी वन्दा में जो कुछ कहा हो, उसे और सुनाइये।' यह सुनकर श्री रूप जी और भी अकिध सिकुड़ गये। महाप्रभु के सम्मुख उन्हीं के सम्बन्ध का श्लोक पढ़ने में उन्हें बड़ी घबड़ाहट-सी होने लगी। किन्तु, फिर भी राय महाशय के आग्रह से रुक-रूककर ये लजाते हुए पढ़ने लगे- इसे सुनते ही प्रभु कहने लगे- 'भगवान जाने इन कवियों को राजा लोग दण्ड क्यों नहीं देते। किसी की प्रशंसा करने लगते हैं, तो आकाश-पाताल एक कर देते हैं। इनसे बढ़कर झूठा और कौन होगा? इस श्लोक में तो अतिशयोक्ति की हद कर डाली है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो चन्द्रमा में हुए अमृत की मधुरिमा के मद को चूर्ण करने वाली है अर्थात चन्द्रामृत से भी मीठी है और श्री राधादि व्रजांगनाओं के प्रणयरूप जी कर्पूर द्वारा सुगन्धित बनी हुई है, वह हरि-लीलारूपिणी शिखरिणी (श्री खण्ड) सन्ताप को उत्पन्न करने वाले विषम संसार मार्ग में भ्रमण करने से उत्पन्न हुई तृष्णा को सब ओर से मिटा दे (दही, मीठा, कर्पूर, इलायची, केसर आदि डालकर श्री खण्ड बनाते हैं। वहाँ प्रेम, प्रेम युक्त लीला, हाव-भाव, कटाक्ष और व्रजांगनाओं के प्रबल प्रणय आदि को मिलाकर हरिलीलारूप जी श्रीखण्ड तैयार किया गया है)। (विदग्धमाधव ना. 1/2)
- ↑ अपनी उत्कृष्ण एवं उज्जवल रसमयी भक्तिसम्पदा को, जो बहुत दिनों से किसी को अर्पित नहीं की गयी हैं, बांटने के लिये ही जिन्होंने दयावश कलियुग में अवतार धारण किया है, वे सुवर्ण के समान सुन्दर कान्ति से देदीप्यमान शचीनन्दन (श्रीगौरांग) तुम्हारे हृदय में स्फूर्ति लाभ करें। (विद्गधमाधव ना.1।1)