श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी93. श्रीभुवनेश्वर महादेव
अन्तर्यामी भगवान तो घट-घट की जानने वाले हैं। उन्हें सब बातों का पता चल गया। उन्होंने सोचा-‘शिव जी मेरे भक्त हैं, तपस्या के अभिमानी उस राजा के साथ इन्हें भी अभिमान हो आया। इसलिये मुझे दोनों के अभिमान को चूर करना चाहिये। शिव जी का जो प्रिय हैं, वह मेरा भी प्रिय है, इसलिये दोनों ही मेरे भक्त हैं, इन दोनों के मद को नष्ट करना मेरा कर्तव्य है, तभी मेरा ‘मदहारी’ नाम सार्थक हो सकता है।’ यह सोचकर भगवान ने राजा की सेना के ऊपर सुदर्शन चक्र छोड़ा। उस सुदर्शनचक्र ने सर्वप्रथम तो राजा के सिर ही धड़ से अलग करके उसे भगवान की विष्णुपुरी में भेज दिया। क्योंकि भगवान का क्रोध भी वरदान के ही तुल्य होता है।[1] इसके अनन्तर राजा की सम्पूर्ण सेना को छिन्न-भिन्न करके सुदर्शन चक्र शिव जी की ओर झपटा। शिव जी अपने अस्त्र-शस्त्रों को छोड़ मुठ्टी बाँधकर भागे, किन्तु जगत के बाहर जा ही कहाँ सकते थे? जहाँ-कहीं भी भागकर जाते, वहीं सुदर्शन चक्र उनके पीछे पहुँच जाता। त्रिलोकी में कहीं भी अपनी रक्षा का आश्रय न देखकर शिव जी फिर लौटकर भगवान की ही शरण में आये और पृथ्वी में लोटकर करुण स्वर से स्तुति करने लगे- ‘हे जगत्पते ! इस अमोघ अस्त्र से हमारी रक्षा करो। प्रभो ! आपकी माया के वशीभूत होकर हम आपके प्रभाव को भूल जाते हैं। प्रभो ! यह घोर अपराध हमने अज्ञान के ही कारण किया है। आप ही सम्पूर्ण जगत के एकमात्र आधार हैं। ब्रह्मा, विष्णु और हम तो आपकी एक कला के करोड़वें अंश के बराबर भी नहीं हो सकते। हे विश्वपते। आपके एक-एक रोमकूप के करोड़ो ब्रह्माण्ड समा सकते हैं। नाथ ! हम तो माया के अधीन हैं। माया आपकी दासी है। वह हमें जैसे नचाती है, वैसे ही नाचते हैं। इसमें हमारा अपराध ही क्या है? हम स्वाधीन तो हैं ही नहीं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ये ये हताश्चक्रधरेण राजन त्रैलोक्यनाथेन जनार्दनेन। ते ते मृता विष्णुपुरीं प्रयाता:क्रोधोऽपि देवस्य वरेण तुल्य:॥