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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
8. कर्ण पर्व
अध्याय : 1-25
पर कर्ण और शल्य की कुण्डली मिलने वाली न थी। शल्य ने कठोर भाषण से शत्रु की प्रशंसा और कर्ण की निन्दा, विशेषतः अर्जुन के पराक्रम का बखान करना शुरू किया। कर्ण को तो अर्जुन से युद्ध करने का उत्साह था और वह सैनिकों से पूछ रहा था कि शल्य ने उसे फिर चिढ़ाया, “हे कर्ण, अब तुम काल-पक्व होकर मृत्यु के मुख में जाना चाहते हो।” तब कर्ण को कहना पड़ा, “हे शल्य, तुम मित्र का मुख रखने वाले मेरे शत्रु हो और मुझे भयभीत करना चाहते हो।”[1]। पर शल्य की जिह्वा विष की थैली थी। उससे चुप न रहा गया और कहने लगा, “हे कर्ण, तुम गीदड़ की तरह शेर से या बटेर की तरह गरुड़ से भिड़ना चाहते हो। जैसे मेढक मेघ को देखकर टर्राता है, ऐसे ही तुम्हारा यह भाषण है। क्या बिना डोंगी के कोई कुपित समुद्र को पार कर सकता है? चूहे और बिलार में, कुत्ते और बाघ में, शृगाल और सिंह में, खरगोश और हाथी में, झूठ और सत्य में एवं विष और अमृत में जितना अन्तर है, उतना ही तुममे और अर्जुन में है।” जब बात इतनी बढ़ी तो कर्ण से भी न रहा गया और इसके बाद कर्ण ने जो कुछ शल्य के लिए कहा, वह महाभारत का अत्यन्त विलक्षण प्रकरण है। उसे पुष्पिका में मद्रक-कुत्सन कहा गया है। यह अंश कर्ण पर्व के 27वें अध्याय के 71-91 श्लोकों में और 20वें अध्याय के 7-81 श्लोक में आया है। यहाँ महाभारतकार क्या कहना चाहते थे और इन श्लोकों का वास्तविक अर्थ क्या है, यह बात अभी तक किसी लेखक ने स्पष्ट नहीं की है। यह ऊपर से तो कर्ण और शल्य की तू-तू मैं-मैं जान पड़ती है, किन्तु इसके भीतर ठोस ऐतिहासिक तथ्य छिपा हुआ है। बात ऐसी है कि जब इस देश पर सिकन्दर ने आक्रमण किया, तो उसके अन्यायी यवनों को कुछ प्रदेशों पर अधिकार हो गया। पहले यह अधिकार बाल्हीक या बल्ख प्रदेश पर था और वहाँ के यवन शासक बाल्हीक यवन कहलाते थे। मौर्य सम्राटों के युग में तो वे निस्तेज होकर सिकड़ु हुए पड़े रहते थे; किन्तु मौर्य साम्राज्य के बिखरने पर जब पुष्यमित्र सत्तारूढ़ हुआ, उस यवनों गान्धार और पंजाब की ओर अपने पैर फैलाने शुरू किये और उनमें से दिमित्र और मेनन्द्र नामक राजाओं ने पंचनद और पंजाब के उत्तरी प्रदेश में, जिसे मद्र कहते थे, एवं जिसकी राजधानी शालक थी, अपना अधिकार जमाया। मद्रराज शल्य भी वहीं के थे। अतएव उनके ब्याज से जो कुछ मद्रक यवनों के आचार और विचार के प्रति भारतीयों की प्रतिक्रिया थी, वह सब शल्य के सिर मढ़कर यहाँ कही गई है। स्पष्ट ज्ञात होता है कि मद्रक यवनों का रहन-सहन भारतीयों के आचार-विचार और सामाजिक संगठन से भिन्न था। उनमें खान-पान, नाच, रंग, सुरा और मद, नग्न-नृत्य आदि बहुत-सी कुटिल प्रथाएं ऐसी थीं, जिनकी चर्चा मध्य देश में रहने वाले भारतीयों के कानों में आने लगी। तभी ऐसा हुआ कि मध्य देश में ऐसी धारणा फैली कि पांच नदियों वाला वाहीक देश पृथ्वी का मल है, वहाँ किसी को नहीं जाना चाहिए। यहाँ तक बात बढ़ी कि जो कुरुक्षेत्र, सरस्वती और दृशद्वती के बीच का प्रदेश, पृथ्वी का सबसे पवित्र स्थान माना जाता था, उसके लिए भी कहा गया है कि “तीर्थ यात्रा के लिए वहाँ दिन में ही जाना चाहिए और रात्रि में न ठहरकर उसी दिन वापस चले आना चाहिए।” यह बात कुरुक्षेत्र की यात्रा के सम्बन्ध में कही गई है और उसकी भी संगति यही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ त्वं तु मित्रमुखः शत्रुर्मां भीषयितुमिच्छसि 27। 28
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