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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 37-40
इसका समर्थन प्रज्ञावादी विदुर ने भी किया है।[1] इन वादों के अनेक सिद्धान्त प्रज्ञावादी बुद्ध के दर्शन में भी जा मिले हैं। धम्मपद के अनेक स्थलों की तुलना प्रज्ञावाद या नियतिवादियों के दृष्टि कोण से की जा सकती है। धम्मपद में पंडित को निन्दा या प्रशंसा से अलग रहने का उपदेश दिया गया है।[2] यह विदुर के ‘निन्दाप्रशंसासु समस्वभावः’ से मिलता है। नियतिवाद में सत्यवाक का उपदेश दिया गया है। प्रज्ञावाद उसकी व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए वाक्य के चार रूप मानता है। तूष्णी या मौन भाव सबसे अच्छा है। बोलना ही पड़े तो सत्य कहना, सत्य भी जो प्रिय हो, और प्रिय भी ऐसा, जो धर्मयुक्त हो। विदुर के प्रज्ञावाद में रुक्ष या कटीली वाणी की बहुत निन्दा की गई है। जो मर्म, हड्डी, हृदय और प्राणों को छेद दे, ऐसी घोर वाणी मनुष्य को जलाकर राख कर देती है। प्रज्ञावाद में उसके लिए कोई स्थान नहीं। हृदयस्थ प्रज्ञा देवी ही तो वाग्देवी के रूप में प्रकट होती है। प्रज्ञावाद में जैसे श्री का महत्त्व माना गया है, वैसे ही वाक या सरस्वती का भी। महाप्राज्ञ महर्षि हंस और साध्यों के संवाद में सर्वप्रथम धर्ममयी और काव्यमयी उदार वाणी पर ही बहुत बल दिया गया है। जो प्रज्ञामयी वाणी है, उसे ही काव्यमयी कहा जाता है। प्रज्ञावाद में सबसे अधिक गौरव आर्जव या हृदय की शुद्ध और सरलता को दिया गया है। विदुर धृतराष्ट्र को बार-बार आर्जव का महत्त्व समझाते हैः उभे एते समे स्यातामार्जवं वा विशिष्यते।। यद्यपि नियतिवादी आचार्य मंखलि गोशाल ने भी सर्वभूत दया का उपदेश दिया है,[3] पर नियतिवाद के अनुयायी धृतराष्ट्र के लिए कौरव-पाण्डव दोनों में ऋजुता और समता की नीति से व्यवहार करना संभव नहीं हो रहा था। इस संघर्ष में आर्जव का प्रयोग किस प्रकार किया जाना चाहिए था इसी के बताने के लिए विदुर ने विरोचन और सुधन्वा का वह दृष्टान्त सुनाया था। माया, छल, जिह्मता या टेढ़ापन, इनके लिए प्रज्ञावाद में कोई स्थान नहीं। ज्ञात होता है कि नियतिवाद के साथ ही योनिवाद का भी कुछ समझौता था। योनिवाद के अनुसार जन्म ही पुरुष के पद का निर्णयकर्त्ता है, कुल या आचार नहीं। प्रज्ञावादी दार्शनिक इन दोनों के समन्वय में विश्वास करते थे, अर्थात कुल भी प्रधान है, और आचार भी महत्त्वपूर्ण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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