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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 37-40
सदाचार से ही कुलों को महिमायुक्त बनाया जाता है। अतएव इसी प्रसंग में प्रज्ञावाद दर्शन के अन्तर्गत महाकुलों की विशेषताओं का वर्णन किया गया है। नियतिवाद की दृष्टि से व्यक्ति के गुणों का कुछ मूल्य नहीं, क्योंकि उत्कर्ष और अपकर्ष का निर्णय भाग्य ही कर देता है। इसके विपरीत प्रज्ञावाद गुणों का समर्थक है। व्यक्ति स्वयं अपनी बुद्धि से और पुरुषार्थ से गुणों का उपार्जन कर सकता है एवं उनसे धर्म, अर्थ, काम की उपलब्धि कर सकता है। विद्या, तप, इन्द्रिय-निग्रह, त्याग, शान्ति, स्वाध्याय, दान, धृति, सत्य, शम आदि सद्गुणों से व्यक्ति का उत्थान सम्भव है, इसमें भाग्य बाधक नहीं। कोई धन से बड़े और कोई गुण से बड़े होते हैं। धन-वृद्ध की अपेक्षा गुण-वृद्ध श्रेष्ठ है। ज्ञात होता है कि भाग्यवादी धन के उत्कर्ष को बड़प्पन का हेतु मानते थे और प्रज्ञावादी गुणों को। भाग्यवाद में धर्म के लिए स्थान नहीं, किन्तु प्रज्ञावाद की मूल भित्ति धर्म ही माना जाता थाः धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हे तोः।। नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये। नित्यो जीवो धातुरस्य त्वनित्यः।।[1] अर्थात काम से, भय से, लोभ से या प्राणों के भय से भी धर्म को न छोड़ना चाहिए, क्योंकि धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य हैं, जीव नित्य है और शरीर अनित्य है। अनित्य को छोड़कर नित्य का आश्रय लेना चाहिए। यह उत्तम श्लोक ही महाभारत के दृष्टिकोण की कुंजी है। इसे सम्पूर्ण महाभारत के अन्त में पुनः दोहराते हुए भारत-सावित्री कहा गया है। नियतिवाद का पांचवा सिद्धान्त अविवित्सा अर्थात वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा का निराकरण था। इसके विपरीत प्रज्ञावाद विवित्सा का समर्थन करता है, अर्थात मनुष्य को व्यावहारिक जीवन में घर-गृहस्थी, खान-पान, वस्त्र-शयनासन, भूमि, राज्य-शासन आदि सब रुचि लेनी चाहिए। जो कुछ भाग्य ने दे दिया, नियतिवादी उससे सन्तोष मान लेता है, किन्तु पुरुषार्थवादी या प्रज्ञावादी कुटुम्ब, खेत, भूमि, घर, रहन-सहन, भोजन-वस्त्र सब को अच्छे कुल की कसौटी समझता है और उनमें सुधार करना चाहता है। यदि घर में दरिद्रता के कारण जीविका का अभाव है तो उसे भाग्य पर न टाल कर विनय या जीवन में प्राप्त शिक्षा से उपलब्ध करना चाहिए।[2] कार्य में अध्यवसाय प्रज्ञा का लक्षण है। कभी ऐसा भी देखने में आता है कि बुद्धि होने पर भी धन लाभ नहीं होता और मूढ़ के पास रुपये पैसे की तरावट देखी जाती है। ऐसी घटना से प्रज्ञावादी को घबड़ाना नहीं चाहिए। लोक-पर्याय धर्म से ऐसा सम्भव है, किन्तु अन्त में प्रज्ञा का फल मिलता ही है। भाग्यवादी मूढ़ जन विद्यावृद्ध, शीलवृद्ध, बुद्धिवृद्ध आदिवृद्ध जनों का अपमान कर बैठते हैं, क्योंकि वे गुणों को नहीं मानते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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