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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 37-40
प्रज्ञावाद के निरूपण में विदुर ने इन मतों का बहुत ही कुशलता से खंडन करते हुए अपने कर्म-परायण मत का प्रतिपादन किया है। नियतिवाद भूत, भविष्य और वर्तमान के हर एक पल को और जीवन के हर एक कर्म को बिल्कुल बंधा हुआ मानता है, उसमें मनुष्य को बुद्धिपूर्वक कर्म की गुंजाइश नहीं रहती। नियति में प्रज्ञा या बुद्धि से कुछ प्रयोजन नहीं। अतएव नियतिवाद का उलटा दर्शन आयतिवाद कहलाता था। उसके अनुसार बुद्धिपूर्वक कर्म से भविष्य को सुधारा जा सकता है। विदुर आयतिवाद और प्रज्ञावाद के समर्थक थे, जैसा धृतराष्ट्र ने कहा हैः न चोत्सहे तु त्यक्तुं यतो धर्मस्ततो जयः।। नियतिवाद के अनुसार विधाता ने जैसा भविष्य लिख दिया है, वैसा होकर रहेगा। प्रज्ञावाद के अनुसार पराक्रम से अनर्थ को टाला जा सकता है और बुद्धि से भविष्य को सुधारा जा सकता है।[1] भाग्यवादी कहते थे कि हाथ-पैर हिलाने से कुछ लाभ नहीं, आयास या यत्न व्यर्थ है। इसके उत्तर में प्रज्ञावाद उत्थान, समारम्भ एवं पराक्रम का दृष्टिकोण रखता है।[2] विदुर के अनुसार इन्द्रियों का कर्म छोड़ बैठना ऐसा ही है, जैसे मृत्यु हो जाना।[3] उत्साह ही जीवन है। जिन्होंने उत्साह छोड़ दिया, उन्होंने मानो लक्ष्मी और श्री से भी विदा ले ली। नियतिवाद निर्वेद या वैराग्य पर जोर देता है, किन्तु प्रज्ञावाद के अनुसार अनिर्वेद या उत्साह-परायण कर्म ही सुख की प्राप्ति, दुःख के नाश और श्री का मूल है। जिसका मन नहीं बुझा, वही जीवन में महान बन सकता है।[4] नियतिवादी भी क्षमा का उपदेश करते थे, किन्तु प्रज्ञावाद के अनुसार जो प्रभविष्णु या सामर्थ्यवान है, उसी की क्षमा सच्ची क्षमा है। जो अशक्त है उसके पास तो क्षमा के सिवा और कुछ है ही नहीं। जो अर्थ और अनर्थ दोनों को एक समान समझ कर बैठा हो, वही नित्य क्षमा का आश्रय लेता है। नियतिवाद में सर्वसाम्य या सबको बराबर समझा जाता था, किन्तु प्रज्ञावाद छोटे और बड़े, विद्वान और मूर्ख में उचित भेद करता है। इसके अनुसार छोटों को बड़ों का स्वागत, सत्कार और अभिवादन करना आवश्यक है।[5] सर्वसाम्य का यह भी अर्थ था कि व्यक्ति को निन्दा और प्रशंसा में शोक या हर्ष नहीं मानना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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