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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 36
ऋषियों की दृष्टि में सामाजिक उच्चता का आधार धन नहीं, तपश्चर्या, ब्रह्मविद्या, इन्द्रिय-निग्रह आदि वैयक्तिक गुण ही थे, जिनसे कुलों की प्रतिष्ठा बढ़ती थी। जिन कुलों में सदाचार का पालन होता है वह अल्प-धन होने पर भी महाकुलों में गिने जाते हैं।[1] यहाँ कुल संख्या से तात्पर्य महाप्रवर काण्ड या उन गोत्र-सूचियों से है, जो बौधायन, आश्वलायन आदि श्रौत सूत्रों पाई जाती हैं। उनमें उस समय के यशस्वी कुलों के नाम संग्रहीत हैं। जो महाकुलीन हैं वे ही समाज के भारी दायित्व को संभालते हैं, जैसे सेंदन के वृक्ष (सं. स्यन्दन) की छोटी लकड़ी भी रथ में लगी हुई भारी बोझे को सह लेती है। इसी प्रसंग में एक विलक्षण वाक्य आया है, जिसकी तुलना में रखने के लिए सतसाहस्री संहिता में हमें संभवतः और कुछ कठिनाई से मिलेगा। उस समय यह प्रथा थी कि प्रत्येक कुल या परिवार की ओर से एक प्रतिनिधि जनसमिति में सम्मिलित होता था। उसे कुल-वृद्ध, स्थविर या गोत्र कहते थे। कुल की इकाई ही पौर जनपद संस्थाओं का आधार थी। यहाँ कहा गया हैः अर्थात, हममें से कृषि के लिए खेत में बीज नहीं डालता वह समिति या सभा में बैठने का अधिकारी नहीं। विदुर ने अच्छे मित्रों के सम्बन्ध में भी कुछ बुद्धिपूर्ण बातें कही हैं। जिसमें मित्र के पिता के समान आश्वस्त हुआ जा सके, वही मित्र है और सब तो केवल जान-पहचानी हैं। ज्ञात होता है, धृतराष्ट्र ऊपरी मन से यह सब सुन रहे थे। भीतर उन्हें यही चिन्ता थी कि युधिष्ठिर युद्ध में मेरे पुत्रों का अन्त न कर दे। उन्होंने पूछा, “हे विदुर, मुझे बड़ी घबराहट है, इससे कैसे बचूं?” विदुर ने कहा “विद्या और तप के बिना, इन्द्रिय-निग्रह के बिना और लोभ का त्याग किए बिना शान्ति का उपाय मुझे दिखाई नहीं देता।” अन्तिम नुस्खा धृतराष्ट्र के लिए ही था। “जिसके भीतर कुछ, बाहर कुछ है, उसे न नींद आती है और न अन्न भाता है, न वह धर्म कर पाता है, न सुख पाता है। दुविधा में पड़े हुए ऐसे व्यक्ति के लिए नाश के सिवा और कुछ गति नहीं। अलग-अलग पड़े हुए भाई-बन्धु धुंधआते रहते हैं, वे ही यदि मिल जायें तो प्रचण्ड अग्नि का रूप धारण कर लेते हैं। ताने के फैले हुए सूतों में जब बाने के बहुत से सूत बुन जाते हैं तो उनसे मजबूत वस्त्र बन जाता है। यही भाई-बन्धुओं के मेल का हाल है। पहले तुमने मेरी बात नहीं मानी, पर अब भी तुम पाण्डवों की रक्षा करो तो सब ठीक हो जायेगा। कौरव पाण्डवों का और पाण्डव तुम्हारे पुत्रों का पालन करें। समस्त कौरवों के शत्रु-मित्र समान हों, उनका मंत्र समान हो, वे सुखी समृद्ध होकर जीयें। तुम कौरवों के बीच की थूनी हो। सारा कुरुकुल तुम्हारे अधीन है। तुम्हीं कौरवों और पाण्डुपुत्रों में सन्धि करा सकते हो। वे सत्य में स्थित हैं। तुम दुर्योधन को सत्य पर ठहराओ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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