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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 36
फिर विदुर ने हंस-साध्य संवाद के रूप में एक बहुत ही उदात्त प्रवचन धृतराष्ट्र के सामने रखा। यह चरण युग के नीति विषयक साहित्य का जगमगाता हुआ माणिक्य है। इसका जो अंश यहाँ है लगभग उन्हीं शब्दों में वह शान्तिपर्व में आया है।[1] वहाँ इसे 'हंस गीता' कहा है। स्वयं अव्यय पुरुष प्रजापति की कल्पना सुनहले हंस के रूप में की गई है। उसे ही अन्यत्र हिरण्यपक्ष शकुनि कहा है। वह विश्वप्रतिष्ठ प्रजापति का सर्वत्रगामी रूप है जो सबके हृदय में विद्यमान है और ध्यान करने से सभी उसका साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं। सत्य, क्षमा, दम, शम, धृति, प्रज्ञा, तप इनके द्वारा ही हृदय की ग्रन्थि का विमोक्ष सम्भव है। प्रज्ञादर्शन में जो प्राज्ञ का उच्च स्थान था वह कोई नई कल्पना न थी, बल्कि प्राज्ञ को ही वैदिक युग में धीर कहते हैं। उपनिषद युग में श्रुत ज्ञान प्राप्त करके जो उसे कर्मों में उतारते थे उन्हें ही ‘कर्माणि धियः’ इन परिभाषा के आधार पर धीर कहा जाता था। वह मूल्यवान शब्द उपनिषद साहित्य में बार-बार आता है। यहाँ भी महर्षि हंस को ‘श्रुतेन धीरः’ कहा गया हे। उन महर्षियों की यह काव्यमयी उदार वाणी थी। वे धर्म में निरत अपने भीतर ही देखते थे, बाहर अन्य व्यक्तियों के दोषों पर दृष्टि न करते थे। इस संवाद का निचोड़ वाणी का संयम है। मनुष्य को उचित है कि रूखी मर्मच्छिद वाणी कभी न कहे। वह मुख में साक्षत डायन (निर्ऋति) का निवास है। वाक कंटकों में बढ़कर लक्ष्मीनाशक और कुछ नहीं। बोलने से न बोलना अच्छा है, यह पहला पक्ष है। उससे सत्य वचन अच्छा है, यह दूसरा पक्ष है। सत्य कथन से भी प्रिय कथन तीसरा विकल्प है, और उससे भी धर्मानुकूल वचन अन्तिम है। सत्यवादी, मृदु, दान्त, उत्तम पुरुष सबको अस्ति भाव चाहता है, किसी का नास्ति भाव नहीं। इतना सुनकर धृतराष्ट्र ने महाकुलों की वृत्ति और आचारों के विषय में प्रश्न किया। प्रज्ञा दर्शन सामाजिक गृहस्थधर्म का समर्थक था। समाज की इकाई कुल है। अतएव व्यक्तियों के उच्च आचार-विचार का प्रत्यक्ष फल कुलों की श्रेष्ठता के रूप में समाज को मिलता है। व्यक्ति चले जाते हैं, पर कुल-प्रतिष्ठा पीढ़ी दर पीढ़ी बनी रहती है, अतएव महाकुल कैसे बनाए जायें- यह प्रश्न प्रज्ञा दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता था। यह प्रकरण मनुस्मृति[2] में भी आया है। प्राचीन भारतवासी कुल की प्रतिष्ठा पर बहुत ध्यान देते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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