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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 35-36
विदुर ने धृतराष्ट्र के व्यक्तित्व की उधेड़-बुन करके यह निष्कर्ष निकाला था कि व्यक्ति में आर्जव की कमी है, इसका सोचना कुटिलता से भरा है। ऊपर से थोड़ी देर के लिए पाण्डवों के हित का जबानी जमा-खर्च करके फिर भीतर से उनकी काट सोचता है और अपने पुत्रों का पक्ष करता है। इसलिए विदुर ने धृतराष्ट्र के लिए सब गुणों का निचोड़ आर्जव या हृदय की सिधाई माना और कहा, “सब तीर्थों का स्नान एक ओर और सब भूतों में आर्जव का व्यवहार दूसरी ओर। या तो ये बराबर उतरेंगे या आर्जव कुछ भारी बैठेगा। इसलिए हे राजन, अपने इन पुत्रों के प्रति ऋजुता का व्यवहार करो।” अपनी बात दृढ़ता से बैठाने के लिए विदुर ने यहाँ एक चुटकुला सुनाया, जिसे वे पहले भी कौरव सभा में द्रौपदी के प्रश्न पूछने के अवसर पर सुना चुके थे।[1] अंगिरा के पुत्र सुधन्वा और प्रह्लाद के पुत्र विरोचन दोनों युवकों का मन केशिनी नामक कुमारी पर गया। कन्या ने कहा, “तुम दोनों में जो श्रेष्ठ हो, मैं उसी की हूँ।” दोनों उद्धत युवकों ने हार-जीत के फल पर जान की बाजी लगा दी। विरोचन ने कहा, “प्रश्न का निर्णय करावें।” सुधन्वा ने विरोचन के पिता प्रह्लाद को ही पंच बद किया। प्रह्लाद बड़े फेर में पड़े, पर सत्य का पद ऊंचा है। पुत्र हो या दूसरा हो, साक्षी देते समय सच ही कहना धर्म है। इसलिए प्रह्लाद ने निर्णय दिया, “अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ है। अतएव हे विरोचन, सुधन्वा तुमसे उत्तम है।” प्रह्लाद के इस अविचल सत्य से सुधन्वा बहुत प्रभावित हुआ और उसने विरोचन को प्राण-भिक्षा देते हुए कहा, “मेरे सामने उस कुमारी के पैर धोते जाओ।” विदुर ने यही समझाया कि पुत्रों के लिए झूठ का सहारा मत लो, “देवता लाठी लेकर किसी को मारने नहीं आते। जिसकी रक्षा चाहते हैं, उसे बुद्धि बांट देते हैंः यं तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्ध्या संविभजन्ति तम्।।[2] वेद भी मायावी को उसके पाप से पार नहीं लगाते। पंख निकलने पर पंछी घोंसले से उड़ जाते हैं, वैसे ही अन्त काल में उसे वेद छोड़ जाते हैं। यदि मान से अग्निहोत्र करे, मान से मौन साधे, मान से अध्ययन करे और मान से यज्ञ करे, इनसे भय ही होता है अभय नहीं।” इसके बाद विदुर ने सत्य, शील, अनसूया आदि हृदय के शोभन गुणों के विषय में बहुत कुछ धृतराष्ट्र से कहा। “अधर्म से प्राप्त धन से जो अपना छिद्र ढकता है वह छिद्र ढका नहीं जाता उसमें और भी दरार पड़ जाती है। दुर्योधन, शकुनि, दुःशासन और कर्ण का पल्ला पकड़कर तुम किस भलाई की आशा करते हो? पाण्डव तुम्हें पिता समझते हैं, तुम भी उन्हें पुत्र मानो।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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