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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 33-34
विदुर ने आरम्भ में पंडित और मूर्ख इनकी व्याख्या कीः “पण्डित या प्राज्ञ वह है, जो जीवन में प्रशस्त ध्येय को चुनता है, निंदित में मन नहीं देता। श्रद्धा उसके कर्मों का मुख्य लक्षण है। वह जो लक्ष्य बनता है, उससे क्रोध, दर्प या सम्मान की इच्छा उसे नहीं हटा पाती। वह जो सोचता है, उसके कर्म से ही वह व्यक्त होता है, कहने से नहीं। शीत, उष्ण, गरीबी, अमीरी, ये उसके कार्य में विघ्न नहीं डालते। वह शक्ति के अनुसार ही इच्छा करता है और शक्ति से ही कर्म की मात्रा बनाता है। बिना पूछे हुए दूसरे के काम में हस्तक्षेप नहीं करता। यह पंडित की सबसे बड़ी पहचान है कि वह समझ-बूझकर अपने कार्यों का निश्चय करता है, कामवश नहीं। जो नहीं मिल सकता, उसे वह चाहता नहीं। जो नष्ट हो चुका है, उसका सोच नहीं करता। वह आपत्ति में घबराता नहीं। यही पंडित की पहचान है। जो निश्चय करके उस पर बढ़ चलता है, बीच में रुकता नहीं, जिसने अपने मन को साधकर समय से अधिक-से-अधिक दुहना सीखा है, वही पंडित है। गंगा के गहरे दह के समान पंडित को क्षोभ नहीं होता। उसे न सम्मान से हर्ष और न अपमान से ताप होता है। वह काम की युक्ति और मनुष्यों से व्यवहार का उपाय जानता है। जो आर्च जीवन की मर्यादाओं का रक्षक है, जिसकी प्रज्ञा उसके स्वाध्याय के अनुरूप है, वही पंडित है। जो दरिद्र होकर बड़ी-बड़ी इच्छांए करता है, जो बिना कर्म के फल चाहता रहता है, वह मूढ़ है। जो अपने अर्थ को त्याग कर दूसरे के काम में उलझा रहता है, जो मित्र के काम में मिथ्या व्यवहार करता है, वह मूढ़ है। जो कर्त्तव्य को टालता रहता है, सब जगह शंकाशील रहता है, जिसे शीघ्र करना चाहिए, उसे विलम्ब से करता है, वह मूढ़ है। जो बिना बुलाए जाता है, बिना पूछे बोलता है, जो अपनी त्रुटियों न देखकर उनके लिए दूसरों पर कटाक्ष करता है, जो निठल्ला रहकर भी अलभ्य वस्तु पाने की इच्छा करता है, वह मूढ़ है। धनुर्धारी का छोड़ा हुआ बाण एक भी व्यक्ति को मार सके या न मार सके, पर बुद्धिमान की चलाई हुई युक्ति सारे राष्ट्र और राजा को नष्ट कर डालती है।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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