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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 33-34
आरम्भ में ही विदुर को महाप्राज्ञ कहा गया है। सूत्र रूप से प्रज्ञा की व्याख्या, यही इस विशिष्ट प्रकरण का शीर्षक है। प्रज्ञावान व्यक्ति प्राज्ञ कहा जाता था। उपनिषदों के युग में जहाँ अध्यात्म और दर्शन-तत्त्व का इतना विकास हुआ, वहीं उसका जो अंश मानव-जीवन की व्यावहारिक आवश्यकता के लिए निचोड़ लिया गया, उसी समझदारी का नाम प्रज्ञा था। अथवा कह सकते हैं कि मानव ने निजी जीवन में और सामाजिक व्यवहारों में समझदारी का जो सुन्दर धरातल तैयार किया था, उसी प्रज्ञा की दृढ़ भूमि पर ऊंचे उठते हुए लोग उपनिषदों के अध्यात्म तक पहुँच सके होंगे। प्रज्ञा एक मूल्यवान शब्द बन गया था। आज अंग्रेजी में जिस कामनसेन्स या हिन्दी में समझदारी कहते हैं, वह प्रज्ञा शब्द से अभिहित था। उस युग के ही आसपास यूनान में भी प्रज्ञा का दृष्टिकोण विकसित हुआ था, जैसा हम सुकरात आदि विचारकों के दृष्टिकोण में पाते हैं, जो यह चाहते थे कि मानव प्रत्येक क्षेत्र में व्यावहारिक बुद्धिमानी से काम ले और बुद्धिपूर्वक विचार शैली से ही सर्वत्र विचार करे। प्रज्ञा को बोल-चाल की पाली या मागधी भाषा में पञ्ञा और अर्धमागधी में पण्णा कहा जाता था। हमारा विचार है कि बोली के किसी भेद में प्रज्ञा का रूप पण्णा से पंडा हो गया। इसका वही अर्थ है, जो प्रज्ञा का था, अर्थात हर बात में और हर काम में बुरे और भले की पहचान। कर्म और विचार में ऐसे सुलझे हुए व्यक्ति को ही पंडित कहने लगे। पंडित, प्रज्ञावान और प्राज्ञ का एक ही अर्थ था। प्रज्ञा का मुख्य लक्षण यह है कि वह ‘संसारिणी’ होती है, अर्थात प्रत्येक बात पर वह समाज की स्थिति या जीवन के दृष्टिकोण से विचार करती है। धर्म, अर्थ, काम, यह त्रिवर्ग प्रज्ञा का मुख्य विषय है- कामादर्थं वृणीते यः स वै पण्डित उच्यते।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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