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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
5. उद्योग पर्व
अध्याय : 4-7
इस अवसर पर शल्य ने युधिष्ठिर को दिलासा देने के लिए सपत्नीक इन्द्र के भी दुःख सहने का एक आख्यान सुनाया। यह निश्चय ही इन्द्र-वृत्र प्राचीन वैदिक आख्यान था, जिसे यहाँ भागवत धर्म का उथला पुट देकर किसी उवृंहरणकर्त्ता व्यास ने चलते हुए कथा-प्रवाह को रोककर बे-असर भी कह दिया है। अच्छा होता यदि आरण्यक पर्व की कथाओं की मूसलाधार वृष्टि में इसे भी समेट लिया गया होता। आठवें अध्याय के सत्ताइसवें श्लोक के भाव को शब्दशः अट्ठारहवें अध्याय के तेइसवें श्लोक में (भवान कर्णस्य सारध्यं करिष्यति न संशयः। तत्र तेजो वधः कार्यः कर्णस्य मम संस्तवैः।) दोहराते हुए कथाकार ने टूटे हुए तार को फिर से जोड़ा है, फिर भी यह आख्यान महत्त्वपूर्ण होने से झांकी लेने के योग्य है। अनेक पुराणों में भी कुछ-कुछ भेद से इसके कितने ही रूप सन्निविष्ट हो गए हैं। त्वष्टा प्रजापति का त्रिशिरा नामक पुत्र हुआ वह एक सिर से वेदों का अध्ययन करता और सोम पीता, दूसरे से दिशाओं का पान करता और तीसरे से सुरा का पान करता था। अतएव उसकी संज्ञा विश्वरूप हुई। उसने इन्द्र पद की इच्छा की। इन्द्र ने उसके तप में विघ्न डालने के लिए अप्सराओं को भेजा, पर कुछ फल न हुआ। क्रोध करके इन्द्र ने वज्र का प्रहार किया जिससे वह आहत होकर गिर गया, पर उसके दीप्त तेज के कारण इन्द्र को शान्ति न मिली और वह तेज जीवित-सा ही दिखाई पड़ा। तब इन्द्र ने एक तक्षा को देखा। देखकर कहा कि तुम इसके सिरों को अपने फरसों से काट डालो। इसके लिए तुम्हें यज्ञ में आहुत पशुओं के शिरोभाग प्राप्त होंगे। तक्षा ने वैसा ही किया। इन्द्र प्रसन्न हुए पर प्रजापति त्वष्टा ने क्रोध में भरकर इन्द्र-वध के लिए वृत्र को उत्पन्न किया। ‘इन्द्र शत्रु विवर्धस्व’ कहकर उन्होंने अग्नि में आहुति दी, जिससे वृत्र ने जन्म लिया। वृत्र और इन्द्र का महाघोर संग्राम होने लगा। वृत्र ने सबको घेरकर इन्द्र को ग्रस लिया। देवों ने ऐसी युक्ति की कि वृत्र को जम्हाई आ गई और इन्द्र तत्काल उसके मुख से बाहर आ गए पर वृत्र के आगे इन्द्र न ठहर सके। यहाँ तक तो कथा ठीक चली है। इसके आगे कथा को पहला भागवती पुट यों दिया गया - देव मुनि और इन्द्र ने भयभीत होकर विष्णु के यहाँ गुहार की और उपाय पूछा। विष्णु ने कहा, “जाकर विश्वरूप से मेल करो। मेरे तेज से ही इन्द्र पार पा सकेगा। मैं उसके वज्र में प्रविष्ट हो जाऊंगा।” ऋषियों ने वृत्र से कहा, “तुम भूरिविक्रम इन्द्र को जीत नहीं सकते। क्यों झगड़ते हो? संधि कर लो?” वृत्र ने कहा, “हम देानों तेजस्वी हैं, सन्धि कैसे हो सकती है?” ऋषियों ने फिर उसे चांपा तो उसने कह दिया, “न सूखे से न गीले से, न पत्थर से न लकड़ी से, न शस्त्र से, न वज्र से, न दिन में रात में, यदि मुझे इन्द्र वध्य समझें- और किसी उपाय से नहीं - तो मैं सन्धि कर लूंगा।” ऋषियों ने चट बात मान ली। इन्द्र वृत्र को टीपने की टोह में रहने लगा। कभी समुद्र तट पर उसने उसे संध्या काल में देखा। इन्द्र ने सोचा, “यह रुद्र की संध्या है, न सूर्य का दिन और न चन्द्रमा की रात है। बस उसने समुद्र के फेन से वृत्र पर प्रहार किया और विष्णु के तेज ने फेन में घुसकर वृत्र को पीस डाला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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