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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
5. उद्योग पर्व
अध्याय : 4-7
विग्रह की ओर रपटते हुए कुरु-पाण्डवों की सूचना उनके मामा मद्रराज शल्य तक पहुँची। वे पाण्डवों से मिलने चले। दुर्योधन चतुर राजनीतिज्ञ की भाँति इस समय बहुत ही चौकन्ना बना हुआ था। शल्य के प्रस्थान की सूचना पाते ही उसने मार्ग में अच्छे से अच्छे सभा-मण्डप खड़े करा दिये। शल्य ने इस प्रबन्ध से प्रसन्न होकर सभाकारों को इनाम देने की इच्छा प्रकट की। दुर्योधन तो गुप्त रूप से वहाँ था ही, प्रकट हो गया। वह सब प्रबन्ध उसका किया हुआ जानकर शल्य ने प्रसन्न होकर कहा, “जो इच्छा हो मांग लो।” दुर्योधन ने बात पकड़ कर कहा, “मैं यही चाहता हूँ कि आप सत्यवाक हों और मेरी सेना के सेनापति हों।” शल्य ने उसे स्वीकार किया और तब वे उपप्लव नगर में पाण्डवों के स्कन्धागार (छावनी) में पहुँचे और उनसे मिले। शल्य ने वनवास दुःख से उबरे हुए पाण्डवों के साथ सच्ची सहानुभूति प्रकट करके दुर्योधन के साथ वचन हारने की बात भी कह दी। युधिष्ठिर ने स्वाभाविक धीरता से कहा, “आपने अन्तरात्मा के अनुकूल ठीक ही किया पर मैं चाहता हूँ कि कर्ण और अर्जुन के द्वैरथ संग्राम में आप जब उसके सारथी बनें तो अर्जुन का भी ध्यान रखें। चाहे सारथी रूप में आपके लिए ऐसा करना अनुचित भी हो, फिर भी हे मामा, कर्ण के तेज की हानि आप अवश्य करें।” शल्य ने संभवतः पाण्डवों के दुःख से द्रवित होकर इसे भी स्वीकार कर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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