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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 9-18
कथा का इतना अंश वैदिक धरातल को बहुत कुछ साधे हुए है। मूलतः यह तम और प्रकाश के द्वन्द की कल्पना है, अर्थात जल और तेज का द्वन्द ही सृष्टि का मूल द्वन्द है। यही शीत और ऊष्ण भाव का संघर्ष विश्व के मूल स्पन्दन का हेतु है। आप्य प्राण को असुर और तेजस प्राण को देव कहा जाता है। हमारे इस रोदसी ब्रह्माण्ड में जो अमृतात्मा तैजस तत्त्व है वही इन्द्र है। देवों के अधिपति इन्द्र हैं और असुरों के वरुण। वरुण रात्रि, तम, आवरण और संकोचन के प्रतिनिधि हैं। इन्द्र दिन, ज्योति, भेदन और प्रसारण के प्रतिनिधि हैं। रात्रि तमो लक्षण वह आवरण है जिससे ज्योतिर्मय प्राण आवृत्त हो जाता है। इस आवरण धर्म या आपोमय वारुण प्राण को वृत्र कहा गया है। वृत्र का निर्वचन ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार यह है ‘सर्वं वृत्वा शिश्ये’ अर्थात सबको ढककर या अपने तमोमय रूप से सबका आवरण करके वह सो गया। आपोमय वारुण प्राण से आग्नेय ऐन्द्र प्राण का अभिभूत हो जाना ही उस प्राण की सुप्तावस्था है। व्याप्ति धर्मा कोई जलीय तत्त्व पृथ्वी-अन्तरिक्ष-द्यौ नामक सौर मंडल की त्रिलोकी का संवरण करके उस पर अपना प्रभाव जमाना चाहता है या जमाने के लिए संघर्ष कर रहा है। इसी आप्य प्राण को ऋषियों ने वृत्र कहा है। इस आप्य प्राण रूप वृत्तासुर ने सारे सौर मंडल को घेर रखा है, परन्तु उसके आक्रमण होने पर भी सूर्य का इन्द्र प्राण, जिसे मघवान इन्द्र भी कहते हैं, विजयी बन रहा है। सौर इन्द्र पारमेष्ठय सोम की आहुति से प्रबल बनकर अपने रश्मि रूप वज्र से उस वृत्र का संहार किया करता है अर्थात सौर रश्मियां अपने तेजोबल से उस वृत्ररूपी आप्य प्राण को हटाती रहती है। वैदिक सृष्टि प्रक्रिया के अनुसार स्वयम्भू, परमेष्ठी सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी कुल पांच प्रकार के पिंड हैं। स्वयंभू अव्यक्त हैं। उसके बाद परमेष्ठी वह महान है, जिसमें आप तत्त्व भरा हुआ है। उसी वारुण आप तत्त्व से जब आग्नेय तेज का संघर्ष होता है तब सूर्यात्मा इन्द्र प्रबल होकर पानी के गर्भ से रोदसी त्रिलोकी का निर्माण करता है। पानी से तात्पर्य स्थूल जल से नहीं किन्तु पंचभूतों की वह प्राथमिक अवस्था है जिसमें वे सर्वत्र व्याप्त रहते हैं। इसी आप्ति धर्म के कारण उन्हें आपः (यदाप्नोत् तस्माद् आपः) कहा गया। उस अवस्था को ऋत भी कहते हैं। सर्व व्याप्त होने के कारण जिसका केन्द्र न हो वही ऋत है। ऋत के गर्भ के केन्द्रयुक्त सत्य का जन्म होता है। स्वतः प्रकाश सूर्य ही विश्व का वह सत्यात्मक केन्द्र है जिसकी रश्मियों के उच्छिष्ट भाग से या प्रवर्ग्य से विश्व भूतों की सृष्टि हो रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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