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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 9-18
परमेष्ठी ही त्वष्टा प्रजापति हैं। उसका त्रिशिरा नामक पुत्र विश्वरूप है। जिसमें सब रूपों की समष्टि हो वही विश्वरूप है। प्रजापति और उसका पुत्र दोनों अभिन्न हैं। परमेष्ठी के व्याप्तिमत स्वरूप में या पंचभूतों की प्रथम अव्यक्त अवस्था में जिसे विज्ञान की भाषा में प्रोटो-मैटर कहेंगे, पृथक-पृथक रूप अन्तर्लीन रहते हैं। इन्द्र या मघवा प्राण ही उनका तक्षण करके उन रूपों को अलग-अलग अवस्था में लाता है। कहा है - रूपं-रूपं मघवा बोभविति मायाः कृण्वानस्तन्वम्परि स्वाम्।[1] सौर इन्द्र सकेन्द्र तत्त्व है। जिसमें सीमा भाव हो वही माया तत्त्व है। इन्द्र अपने माया बल को अनन्त केन्द्रों के चारों ओर प्रवर्तित और संचित करता हुआ नाना रूपों की सृष्टि कर रहा है। प्रत्येक पिंड या रूप में एक इन्द्र बल या माया बल सीमित बना है। विश्व का सबसे बड़ा बल माया बल है। त्वष्टा के पुत्र को त्रिशिरा कहा गया है। विश्व रूप होते हुए भी त्रिशिरा के केवल तीन सिर थे। सिर यहाँ रूप तत्त्व का प्रतीक है। विश्व में सब रूपों की तीन ही कोटियां हैं। इन्हें वैदिक भाषा में लोक-साहस्री, वेद-साहस्री और वाक-साहस्री कहते हैं। वेद-साहस्री का तात्पर्य मनेामय रूप, लोक-साहस्री का तात्पर्य प्राणमय या लोकमय रूप (आयतन मात्र) एवं वाक-साहस्री का तात्पर्य अर्थमय या भूतमय रूप है। यही त्रिशिरा के क्रमशः तीन सिर हैं। पहले सिर से वह वेद का अध्ययन करता था, दूसरे से दिशाओं का पान करता था (अर्थात सब लोकों का उसमें अन्तर्भाव था) और तीसरे सिर से वह वाकसृष्टि या भूत सृष्टि के प्रतीक रूप सुरा का पान करता था। सुरा वैदिक भाषा में क्षत्र या भूत का प्रतीक है। सुरा का उलटा सोम है, वह ब्रह्म या वेद है। इसीलिये आख्यान में कहा है कि जिस सिर से वह सोम पान करता था उसी से वेद पाठ भी करता था। इन्द्र के वज्र-प्रहार अर्थात माया बल से त्रिशिरा का शिरश्छेद हो गया जिन विश्वरूपों को उसने अपने तीन सिरों में छिपा रखा था उनका मोक्ष या प्रसारण इन्द्र द्वारा होता है। इस कार्य में इन्द्र तक्षण धर्म का आश्रय लेता है। उसे ही कथा में तक्षा का परशु (बढ़ई का फरसा) कहा गया है। इस तक्षा को क्या प्राप्त होता है? यज्ञ में आहुत पशु का शीर्ष भाग। छिन्न सिर को ही वैदिक भाषा में प्रवर्ग्य कहा जाता है। पशु नाम भूत का है। जितनी भूत सृष्टि है सब प्रवर्ग्य से संभव है। प्रत्येक भूत किसी मूल केन्द्र का छिन्न भाग या प्रवर्ग्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋग्वेद 3।53।8
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