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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 9-18
मूल स्रोत से छिन्न-शीर्ष होना या कटकर अलग हो जाना भूत यज्ञ या भूत निर्माण के लिए आवश्यक है। उदाहरण के लिए सूर्य शक्ति का स्रोत या केन्द्र है। केन्द्र को ही उक्थ कहते हैं। जहाँ से उत्थान होता है वही उक्थ है। सूर्य-केन्द्र से चारों ओर फैलने वाले सहस्र-सहस्र रश्मि जाल का उक्थ सूर्य है। रश्मियों की यह शक्ति जब तक सूर्य से मिली रहती है तब तक उसे सूर्य का ब्रह्मोदन कहते हैं। वही ताप और प्रकाश की शक्ति रश्मियों द्वारा बिखर कर जब आकाश में फैल जाती है तब वह सूर्य का छोड़ा भाग प्रवर्ग्य कहलाता है। प्रवर्ग्य को ही यज्ञ की भाषा में छिन्न-शीर्ष्ण भाग कहते हैं। शक्ति का कोई भी केन्द्र अपना ब्रह्मोदन नहीं दे सकता। उसे स्वरूप-संरक्षण के लिए रखना पड़ता है। उस ब्रह्मोदन का कुछ अंश ही हम अपने से अलग करके दूसरे को दे पाते हैं। उसी को अपने स्वरूप का छिन्न भाग या कटा हुआ अंश कहते हैं। जो यज्ञ निर्माण की प्रक्रिया के भीतर आया हुआ है वही यज्ञ का पशु है। उसके ब्रह्मोदन का प्रवृक्त या छिन्न भाग औरों को प्राप्त होता है। इस दृष्टि से विश्व में सूर्य भी यज्ञीय पशु है। उसे ही मेध्य अश्व कहा है और उषा उस मेध्य अश्व से पृथक हुआ मस्तक या उसका प्रवर्ग्य भाग है।[1] महाकाल रूपी अश्व हमारे लिए अनिवार्य रूप से संगमनीय या संग्राह्य है। उसी का एक प्रच्छिन्न टुकड़ा या सूक्ष्म अंश उषा है। तक्षा ने जब त्रिशिरा के तीनों सिरों का तक्षण कर दिया तब उन तीन सिरों से कथा के अनुसार कपिंजल, तित्तिर और कलविंक ये तीन प्रकार के पक्षी उड़कर चारों ओर फैल गए। यहाँ भी वैदिक कल्पना को पुराण के शब्दों में ढाला गया है। विश्वरूप के सिरों के तक्षण से पक्षियों का नीचे ऊपर दिशा-विदशाओं में फैलना एक सुन्दर अभिप्राय है। पक्षी को सुपर्ण कहते हैं और रूपधारी प्रत्येक पिण्ड या पदार्थ वैदिक भाषा में सुपर्ण जाता है। जिसके निर्माण की व्याख्या के लिए वैध यज्ञ में सुपर्ण-चिति की जाती है। स्वज्योति, परमज्योति और रूपज्योति तीन ही प्रकार के पिण्ड हैं जिन्हें क्रमशः सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी भी कहते हैं। यहाँ प्रतीक भाषा में कपिंजल नाम से (जो ऊंचे वृक्षों पर घोसला रखता है) वेद या मनोमय सुपर्ण, तित्तिर प्रतीक से (जो चारों ओर झाड़ियों में घोंसला रखता है) प्राण या लोकमय सुपर्ण और कलविंक या गोरैया पक्षी के प्रतीक से (जो घरों में घोंसला बनाता है) भौतिक सुपर्ण या पिण्डों का ग्रहण किया गया है। सुपर्ण को ही सप्तपुरुष पुरुषात्मक प्रजापति कहा गया है और सूर्य, चन्द्रमा इत्यादि महापिंडों को भी वैदिक भाषा में सुपर्ण ही कहा है। ये सब त्वष्टा प्रजापति के रूप-तक्षण के प्रकट परिणाम हैं। त्वष्टा रूपाणि पिंशतु अथवा त्वष्टा हि रूपाणां विकरोति इत्यादि कितने ही वाक्यों में वैकारिक, भौतिक या व्यक्त रूपों का निर्माण करने वाले को त्वष्टा कहा गया है। त्रिशिरा और वृत्र दोनों प्रजापति के पुत्र हैं। दोनों असुर आप्य प्राण के ही प्रतीक हैं। त्रिशिरा या विश्वरूप उसकी पूर्वावस्था है और वही जब रूप-तक्षण के लिए उद्यत वज्रधारी इन्द्र से संघर्ष करने लगता है तब उसे वृत्र कहा गया है। वृत्र और इन्द्र के महाघोर संघर्ष को उपाख्यान की भाषा में ढालते हुए कहा है कि वृत्र ने इन्द्र को अपना ग्रास बना लिया और पुनः देवशक्ति की महिमा से इन्द्र वृत्र के उदर से बाहर आया। जो वृत्र सबका आवरण करके सोया हुआ था उसने जम्हाई ली, इसका तात्पर्य यही है कि उसमें अग्नि का जागरण हुआ या गतितत्त्व या प्राणतत्त्व उद्बुद्ध हुआ। आग्नेय का तत्त्व का उद्बोधन ही इन्द्र की विजय है। जृम्भिका या जम्हाई प्राणों की हलचल या जागरण का प्रतीक है। जृम्भण के साथ ही तत्काल इन्द्र वृत्र के ग्रास से मुक्त हुआ और इन्द्र की मुक्ति से देव महीयान और प्रसन्न हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उषा वै अश्वस्य मेध्यस्य शिरः। बृहदारण्यक, 1।1।1
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