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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 9-18
अग्नि और जल का यह संघर्ष सृष्टि प्रक्रिया का मूल रहस्य है। चारों ओर छाए हुए जल को अपनी शक्ति से सोम रूप में परिणत करके अग्नि उसे अपना भक्ष्य या अन्न बनाता है और उसी से बढ़ता है। शुद्ध जो जल रूप अवस्था है वह उस जलात्मक दूध के समान है जिसकी आहुति से अग्नि बुझ जाती है, किन्तु अग्नि संयोग से जब उसी दुग्ध में से घृत उत्पन्न होता है तब वह घृत रूपी सोम अग्नि का संवर्धन करता है। घर्षण, मन्थन, तापन का ही नाम अग्नि है। विराट और अणु दोनों में समान प्रक्रिया हो रही है। इन्द्र सोम चाहता है। सूर्य रूपी इन्द्र का निर्माण भी महती नीहारिकाओं के घर्षण-मन्थन पर ही निर्भर है। यही उस महान समुद्र का मन्थन है जिसका पौराणिक कथाओं में रूपक बान्धा गया है। जब तक आवरण करने वाले वृत्र का विनाश न हो तब तक इन्द्र प्राण की विजय सम्भव नहीं। वृत्र या आवरणात्मक आप तत्त्व को ही वैदिक भाषा में वरुण भी कहा जाता है। आप्य वारुण प्राण आसुरी है। इन्द्र प्राण दैवी है। इसका तात्पर्य यही कि वरुण शीत और इन्द्र उष्ण है; वरुण ऋतु रूप है, इन्द्र या सूर्य सत्य रूप है। सर्वत्र व्याप्ति-धर्मा आप तत्त्व का कोई ध्रुव केन्द्र न था। उसी में मन्थन प्रक्रिया से जब ताप जन्य परमाणुओं का समूहन हुआ तभी केन्द्र का आविर्भाव हुआ। केन्द्रात्मक संस्थान ही सत्य कहा जाता है। वही सूर्य है। महान पारमेष्ठ्य समुद्र में शक्ति के विराट मन्थन से सूर्य सदृश अनेक पिण्ड उत्पन्न हुए। हमारा सूर्य उनका प्रतीक है। आवरण धर्माशीत प्रधान आप्य आसुरी तमोभाव रूपी वृत्र को हटाकर प्रकाशक ज्योति रूप इन्द्र प्राण की अन्तिम विजय या महिमा का साक्षी यह सूर्य है। न केवल विराट सृष्टि में किन्तु प्रत्येक सूक्ष्म सृष्टि में भी जहाँ रेतोधान होता है वृत्र और इन्द्र का यही नियम काम करता है। महान आप तत्त्व योनि है। उसमें शुक्र का आघान किया जाता है। ‘मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन गर्भं दधाम्यहम्’[1], यही सृष्टि का नियम है। माता का आर्तव पारमेष्ठ्य आप तत्त्व के समान है, वह तमोमय है। अभी उसमें कोई रूप प्रकट नहीं। उसमें जब शुक्राधान होता है। तब एक केन्द्र बन जाता है। उस केन्द्र में आग्नेय तत्त्व का एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश प्रविष्ट है। वही अग्नि या इन्द्र प्राण है। उस गर्भित भ्रूण में विश्वरूपों की समष्टि अन्तर्लीन रहती है। उसी में रूपों का तक्षण करने वाला वह मूल प्राण भी जो मन, प्राण, वाक या ज्ञान, क्रिया, अर्थ के समस्त त्रिवित्र रूपों को क्रमशः, अभिव्यक्त करता है। वे ही विश्वरूप त्रिशिरा के तीन सिर हैं। उनका जो तेज ढका हुआ था उस आवरण या वृत्र को हटाकर ही इन्द्र या आग्नेय प्राण उसी गर्भित भ्रूण में सब रूपों को क्रम-क्रम से प्रकट करता है। यही त्वष्टा रूपाणि पिंशति प्रक्रिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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