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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 9-18
मातृकुक्षि में जो अन्न से बनने वाले रस हैं, उन सबके भीतर से पोषण तत्त्व लेता हुआ भ्रूण अपना विकास करता है। वह पोषणात्मक रस तत्त्व ही सोम है। रस की जो मात्रा भ्रूण स्थित उस आग्नेय केन्द्र को प्राप्त होती है, वही उस इन्द्र का सोम भाग है। इन्द्र ने स्वयं अपनी व्याख्या करते हुए कहा है- प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्मा, मैं वह प्रज्ञा या चित तत्त्व हूँ जो प्राण संयुक्त हैं। वृक्ष-वनस्पतियों का रस ही उनका प्राण है। कीट, पतंग, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि में रस भी है और चित और मन सतत्त्व भी विशेष रूप से उद्बुद्ध है। इसी मध्य प्राण की संज्ञा इन्द्र है जो सबके भीतर दहक रहा है। इन्द्र ही इन्द्रियों के रूप में अपनी सत्ता प्रमाणित और प्रकाशित कर रहा है। शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि प्राण रूप में दहकने के कारण ही उसे इन्ध कहते हैं और इन्ध ही इन्द्र है। सृष्टि का मूल विराट भाव या अणुभावों में कोई है तो एक मात्र प्राण या गति तत्त्व ही है। प्राणों वै समञ्च-प्रसारणम्[1]- यही प्राण या गति तत्त्व की सबसे बड़ी वैज्ञानिक परिभाषा है। यही अग्नि है। यही रुद्र है, जैसा स्पष्ट शब्दों में कहा हैः इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्।।[2] सृष्टि कहीं भी हो एक यज्ञ है। अग्नि में सोम की आहुति के बिना कोई सृष्टि सम्भव नहीं। केन्द्रस्थ अग्नि स्पन्दन द्वारा जिस पोषण तत्त्व का आकर्षण करता है वही उसका सोम है। यही दहकने वाला इन्द्र प्राण यज्ञ का सबसे बड़ा देवता है (इन्द्रो वै यज्ञस्य देवता)। सोम ही उसका प्रिय पेय है। यही सृष्टि में इन्द्र की महतो महीयसी महिमा है। इसको नाना प्रकार से और अनेक रूपकों या उपाख्यानों द्वारा उपबृशंहित किया गया है किन्तु तथ्य इतना ही है कि हमारी इस रोदसी त्रिलोकी में इन्द्र ही केन्द्रस्थ तत्त्व है और गति या स्पन्दन ही उसका स्वरूप है। जैसे-जैसे इन्द्र वृत्र पर विजयी होता है वैसे-वैसे ही यज्ञ या रूप निर्माण की प्रक्रिया बढ़ती है। वृक्ष वनस्पति और प्राणधारियों में इसे हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। सृष्टि के मूल में कोई महती ऊष्मा है जिसका तार सब भूतों में पिरोया हुआ है। ऊष्मा से ही ऊष्मा का जन्म सम्भव है, वह ऊष्मा अग्नि है - ‘ऊष्मा चैवोष्मणः जज्ञे सोऽग्निर्भूतेषु लक्ष्यते। अग्निश्चापि मनुर्नाम प्राजापत्यमकारयत्।[3] जो सबसे पहले या प्रारम्भ में हुआ उस अग्रणी ऊष्मा की ही संज्ञा अग्नि है। वही तो भूतों के भीतर बैठा हुआ है। भूतों को रचने वाली वही आग्नेय या इन्द्र प्राणात्मिका शक्ति इस सृष्टि में सबसे महत्त्वपूर्ण और रहस्यमयी है। उसे ही मनुतत्त्व या प्रजापति भी कहा जाता है। ऋग्वेदी उसे सब मूर्तियों का अधिष्ठाता केन्द्र या महदुक्थ कहते हैं। सामवेदी तेज मंडलों की ओर दृष्टि करते हुए उसे ही सबसे महान तेजोमंडल या महाव्रत साम कहते हैं। इन्द्र के स्वरूप की व्याख्या और उसकी साक्षात अनुभूति समस्त ऋग्वेद का सार है। इन्द्र-वृत्र का उपाख्यान ही सब वैदिक उपाख्यानों में सिरमौर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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