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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
5. उद्योग पर्व
अध्याय : 1-3
बलराम के अन्तिम वाक्य सात्यकि को डंक की तरह लगे। उसने कहा, “जिसका आपा जैसा होता है वैसा ही वह कहता है। कुछ लोग शूर और कुछ लोग कायर होते हैं। एक ही कुल में क्लीव और वीर दोनों जन्म पा जाते हैं, जैसे एक वृक्ष फलप्रद और फलहीन शाखाएं। हे बलराम! तुम पर नहीं, मेरा रोष इन सुनने वालों पर है, जिनसे तुमने निडर होकर युधिष्ठिर का दोष कहा। अक्षविद्या में अनजान महात्मा युधिष्ठिर को उन जुआरियों ने अपने घर बुलाकर जीत लिया इसमें कहाँ की धर्मजय? और फिर उसमें उन्होंने कपट किया। वे भीष्म-द्रोण के समझाने से भी पाण्डवों को उनका पैतृक राज्य नहीं देंगे। मैं तीक्ष्ण बाणों से उन्हें युधिष्ठिर के चरणों में झुकाऊंगा। आततायी शत्रुओं के वध में अधर्म नहीं। हां, शत्रुओं से याचना में अधर्म और बट्टा है।” द्रुपद ने सात्यकि के जैसे स्वर में ही कहा, “दुर्योधन मिठास से कभी राज्य न देगा। धृतराष्ट्र उसे चाहता है। अतएव उसी की-सी कहेगा। कर्ण, शकुनि मूर्खता वश और भीष्म, द्रोण उत्साहहीनता वश उसी का साथ देंगे। बलदेव का कहना मेरी समझ में तो बैठा नहीं। बिना शक्ति के दुर्योधन से जो कहा जायेगा उसे वह पापी निर्बलता मानेगा। सब जगह दूत भेजो, नहीं तो वह दुर्योधन भेज देगा। पहले जो प्रार्थना करता है सज्जन उसी की बात मान लेते हैं। शल्य, भगदत्त, आहुक, सेनाबिन्दु आदि निष्पक्ष राजाओं के पास, पंचनद, त्रिगर्त, पांसुराष्ट्र (उड़ीसा की पांस नामक रियासत), कारुष, कलिंगाधिपति कुमार इन सबके पास दूत भेजो। मेरा यह पुरोहित धृतराष्ट्र के पास जाय और इसे आप बता दें कि वहाँ धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण और दुर्योधन से क्या-क्या कहना है?” कृष्ण ने बड़ी चतुराई से बात को समेटा। उनका अपना मत तो दूत भेजने के पक्ष में था ही, द्रुपद के प्रस्ताव को सुनकर उन्होंने कहा, “पंचालराज का कथन युक्ति युक्त है। नीति चाहने वाले हमारे लिए यही पहला कार्य है। हमारा कौरवों-पाण्डवों से बराबर का संबंध है, यदि दोनों का व्यवहार ठीक चलता रहे। हम तो ब्याह के अवसर पर निमंत्रण पाकर आ गए थे। विवाह हो चुका, अब लौट जायेंगे। हे सोमकों में श्रेष्ठ, आप आयु और ज्ञान में वृद्धतम हैं। धृतराष्ट्र आपको बहुत मानते हैं। आप आज ही दूत भेज दीजिए और जो सन्देश हो उसे भी निश्चित कर दीजिए। यदि न्याय से शान्ति हो गई तो भाइयों का युद्ध रुक जाएगा।” तब विराट ने कृष्ण को बन्धु-बान्धवों के साथ द्वारका के लिए विदा किया। उसके बाद द्रुपद ने अपने पुरोहित को दूत रूप में भेजते हुए कहा, “जड़ भूतों से प्राणधारी श्रेष्ठ हैं। सांस लेकर जीने वालों में बुद्धि युक्त प्राणी अश्वगजादि श्रेष्ठ है। बुद्धि-युक्तों में मनुष्य, मनुष्यों में द्विजाती, द्विजों में कर्म परायण बुद्धि रखने वाले उत्तम हैं। आप ऐसे व्यक्तियों में भी मुख्य हैं। साथ ही प्रज्ञा में शुक्र और बृहस्पति के तुल्य हैं। धृतराष्ट्र की जानकारी में यह सब हुआ। विदुर के समझाने पर भी वह पुत्र का ही पक्ष करता है। आप धृतराष्ट्र से धर्मयुक्त बात कहें। वे राज्य तो न देंगे पर उनके जो धर्म परायण योद्धा हैं, उनमें फूट पड़ जायेगी। फिर उन्हें एकमत करने में समय लगेगा। इस बीच में हम लोग सेना-कर्म और सामग्री-संचय कर लेंगे। तुम्हारे जाने का यही मुख्य फल होगा कि कुछ समय मिल जायेगा।” यह सुनकर बुद्धिमान पुरोहित हस्तिनापुर की ओर गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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