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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 4
धौम्य की इस सीख का युधिष्ठिर ने बहुत उपकार माना और कहा, ‘‘माता कुन्ती या महामति विदुर को छोड़कर और कौन हमें ऐसा सिखावन देता?’’ इसके बाद पाण्डव द्वैतवन से चलकर यमुना के दाहिने किनारे से आगे बढ़ते हुए दशार्ण को उत्तर और पांचाल को दक्षिण छोड़कर पैदल ही विराट की राजधानी में पहुँचे। वहाँ एक सघन शमी वृक्ष के ऊपर अर्जुन ने अपने शस्त्रों को छिपा दिया और सबने अज्ञातवास के लिए नगर में प्रवेश किया। विराट की सभा में पहुँचकर पूछे जाने पर युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘मेरा नाम कंक है। वैयाघ्रण्द्य गोत्र है। मैं अक्ष-विद्या में कुशल हूँ। पहले युधिष्ठिर का मित्र था। अब आपके यहाँ काम चाहता हूँ।’’ विराट ने उन्हें अपना सखा बनाकर पास में रख लिया। हाथ में डोई लिए हुए रसोइये के वेश में पहुँचकर भीम ने कहा, ‘‘मैं पाक विद्या में निपुण हूँ और मुझे कुश्ती का भी शौक रहा है। हाथी और शेरों से भी लड़ा हूँ।’’ विराट ने उन्हें अपना महानसाध्यक्ष नियुक्त किया। घुंघराले केशों का जूड़ा बांधे हुए द्रौपदी को सैरन्ध्री के मलिन वेश में दूर से देखकर विराट की रानी सुदेष्णा ने बुलाकर उसका परिचय पूछा। द्रौपदी ने कहा, ‘‘आप मुझे देवी, गन्धर्वी या यक्षी न समझिए। मैं सैरन्ध्री दासी हूँ और केश-विन्यास एवं विलेपन और माल्यग्रथन जानती हूँ। मैं कृष्ण की पटरानी सत्यभामा एवं पाण्डवों की भार्या द्रौपदी की सेवा करती थी। जहाँ काम मिल जाता है, वहीं रह जाती हूँ। मेरा नाम मालिन है।’’ रानी सुदेष्णा ने द्रौपदी को रखना तो चाहा, किन्तु वह उसका रूप-लावण्य देखकर शंकित हो गई कि उसके कारण महल में कोई बखेड़ा खड़ा न हो जाय। द्रौपदी ने कहा, ‘‘विराट या दूसरा कोई मुझे नहीं पा सकता। पांच गन्धर्व मेरे पति हैं, जो मेरी रक्षा करते हैं। मुझे कोई उच्छिष्ट न दे और पैर धोने को न कहे तो मेरे पति प्रसन्न रहते हैं। कोई मुझ पर कुदृष्टि करेगा तो उसी रात को मेरे पति उसे ठिकाने लगा देंगे।’’ सुदेष्णा ने उसकी बातें मानकर अपने पास रख लिया। तब सहदेव ने गोपों के वेश और भाषा का आश्रय लेते हुए सभा में राजा से अपना परिचय दिया, ‘‘राजा युधिष्ठिर की गायों का मैं गोसंख्य था। तन्तिपाल मेरा नाम है। मैं गौवंश की वृद्धि और चिकित्सा-कर्म जानता हूँ। उत्तम लक्षण वाले वृषभों की मुझे पहचान है।’’ विराट ने उसे अपने पशु और पशुपालन सौंपकर रख लिया। तब शंख की चूड़ियां आदि स्त्रियों के अलंकार तथा कानों में ऊंचे खड़े कुण्डल पहने हुए अर्जुन ने सभा में पहुँचकर कहा, ‘‘मैं नृत्य और गीत में कुशल हूँ। बृहन्नड़ा मेरा नाम है। मैं देवी उत्तरा का नर्तक होकर रहूंगा।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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