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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 207-212
स्कन्द को उन सबका अधिपति मानकर उन्हें स्कन्द ग्रह के रूप में स्वीकार कर लिया गया। उनमें से एक ग्रह को स्कन्दापस्मार भी कहा है। इस प्रकार के ग्रह और पूतना, रेवती आदि अनेक देवियों का’ जिनका बच्चों से संबंध माना जाता था, सविस्तर वर्णन काश्यप संहिता नामक आयुर्वेदिक ग्रन्था के रेवती कल्प प्रकरण में आया है। उसका कुछ संकेत हम महाभारत के इस प्रकरण में देखते हैं। वस्तुतः इस प्रकरण के अन्त में जो फलश्रुति दी हुई है, उससे सूचित होता है कि यह महाभारत का मूल अंश न था, किन्तु कुषाणकाल के समीप जोड़ा गया। यह वह समय था जब लोक में विशाख, स्कन्द, महासेन, कुमार इनकी पृथक-पृथक रूप से मान्यता थी, जैसा कि कुषाण सम्राट हुविष्क ने अपने सोने के सिक्कों पर उल्लेख किया है। कार्तिकेय या स्कन्द के स्वरूप के इस अनगढ़ मसाले का तक्षण करके महाकवि कालिदास ने चतुर शिल्पी की भाँति उस उदात्त धरातल पर स्कन्द के उपाख्यान को प्रतिष्ठित किया, जिसे हम कुमार सम्भव में देखते हैं। महाभारत के इस उपाख्यान में स्कन्द का युद्ध महिषासुर से कराया गया है, जो कि कुषाणकाल की लोक-मान्यता थी। गुप्तकाल की पृष्ठभूमि में कालिदास की मौलिक कल्पना के अनुसार स्कन्द का प्रतिपक्षी तारकासुर हो जाता है। कालिदास के अनुसार स्कन्द के स्वरूप का तेजस्वी वर्णन इस प्रकार किया- मत्यादित्यं हुतवह मुखे सम्भृतं तद्धि तेजः।।[1] स्कन्द के इस नूतन स्वरूप की व्याख्या हमने अपने मेघदूत की भूमिका में की है। यह भी ज्ञातव्य है कि कालिदास ने स्कन्द का वाहन मयूर माना है (मयूर पृष्ठाश्रयिणा गुहेन, रघु. 6।4) और सम्राट कुमार गुप्त की स्वर्ण मुद्राओं पर मयूर का ही अंकन है, किन्तु कुषाणकालीन यौधेयगण की मुद्राओं पर कार्तिकेय की खड़ी हुई मुर्त्ति के पार्श्व में कुक्कुट अंकित किया गया है। महाभारत में स्कन्द के साथ मयूर का उल्लेख नहीं मिलता किन्तु कुक्कुट का उल्लेख है:[2] कानपुर जिले में लालाभगत स्थान से प्राप्त कार्तिकेय स्तम्भ के ऊपर कुक्कुट शीर्षक था। मध्य में कुमार वर और श्री लक्ष्मी उत्कीर्ण हैं। आरण्यक पर्व में भी ‘कुमारवरः’ और श्री लक्ष्मी की मूर्त्ति का उल्लेख आया है: श्रिया जुष्टः पृथुयशाः स कुमारवरस्तदा।[3] देवसेना, षष्ठी, श्री लक्ष्मी, अपराजिता और आदि देवियों की एकात्मकता बताते हुए उन सबका सम्बन्ध स्कन्द के साथ जोड़ा गया है। जिस दिन स्कन्द और देवी श्रीलक्ष्मी का सम्मिलन हुआ, वहीं महातिथि लोक में श्री पंचमी नाम से प्रसिद्ध हुई।[4]- श्री पंचमी वसन्त का जन्म दिन है। इसका अर्थ यह है कि उसी दिन से अग्नि के कण सोम के शीत धरातल पर प्रतिष्ठित होने या बसने लगते हैं, जिससे वह ऋतु वसन्त कहलाती है। ऋतुओं में अग्नि की अभिव्यक्ति का आरम्भ ही अग्निपुत्र स्कन्द का श्रीलक्ष्मी से युक्त होना है। वहीं से संवत्सर में कुमार अग्नि का उपक्रम होने लगता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मेघदूत
- ↑ कुक्कुटाश्चाग्निना दत्तस्तस्म केतूरलंकृतः 218।32
- ↑ 218।3-4
- ↑ श्रीजुष्टः पंचमी स्कन्दस्तस्माच्छ्री पंचमी स्मृता। 219।49
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