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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 207-212
आध्यात्मिक और आधियज्ञिक अग्नि की व्याख्या करते हुए मार्कण्डेय का ध्यान एक दूसरे प्रकार की अग्नि की ओर गया, जिसे ब्राह्मण-ग्रन्थ में कुमार अग्नि कहा है। ऋग्वेद के अनुसार यही ‘चित्रशिशु[1] था। सृष्टि का मूलभूत जो कोई विलक्षण तत्त्व है, उसे ही अद्भुत आश्चर्य कहा गया है। वही गुहा निहित या गुह्य है। उस गुहा से जो शक्ति अभिव्यक्त होती है, मार्कण्डेय ने आरम्भ में उसे ही अद्भुत से जन्मा हुआ अद्भुत पुत्र कहा है। वही विलक्षण कुमार अग्नि है: ऋग्वेद में बार-बार अग्नि के लिए ‘गुहा सन्तम्’, ‘गुहा हितम्’ विशेषण आये हैं। देवसृष्टि का जो अमृत तत्त्व है, वह तैजस कहलाता है। वही जब भूतों में अभिव्यक्त होता है, तब उस भूत मर्त्य सर्ग का नाम कौमर सर्ग है। अमृतप्राण तत्त्व ही सर्वभूतों में कुमार अग्नि के रूप में आविर्भूत हो रहा। है। सृष्टि की यह प्राणाग्नि अथ से इति तक नई-नई है। प्रति संवत्सर में प्रत्येक ऊषा के सुनहले प्रकाश में ‘नवो नवो भवति जायमानः’ यही इसका स्वरूप है, मानो इसका क्षय कभी होता ही नहीं। इसीलिए मानो यह सनातन ब्रह्मचारी है। भूतों के निर्माता संवत्सर के द्वारा कुमार अग्नि का जन्म होता है। इसे चित्र क्यों कहा गया? सृष्टि विज्ञान की दृष्टि से इस विलक्षण अग्नि का भूत सृष्टि में बराबर चयन हो रहा है। चित होने के कारण ही इसे परोक्ष भाषा में चित्र नाम दिया गया है। इस प्रकार एक ही मूलभूत अग्नितत्त्व या गति तत्त्व के दो रूप हैं। एक सृष्टि से प्राक् अवस्था में और दूसरा विश्व की भूत चितियों में। मूलभूत अग्नि तत्त्व या गति तत्त्व को वेदों में रुद्रों में रुद्र भी कहा गया है। गति रुद्र, आगति विष्णु और स्थिति या प्रतिष्ठा ब्रह्मा का रूप है। अतएव पौराणिक उपाख्यानों में कुमार रुद्र के पुत्र हैं। उन्हें अग्नि का पुत्र भी कहा गया है। उपाख्यान के अनुसार छह कृत्तिकाएँ गुह या स्कन्द की माताएँ हैं। वैदिक परिभाषा में अग्नि, यम, आदित्य ये तीन अंगिरा हैं और आप, वायु सोम ये तीन भृगु कहलाते हैं। भृगुओं और अंगिराओं के सम्मिलित तप से ही विश्व की मूलभूत अग्नि जन्म लेती है। यही छह कुमार की छह माताएँ हैं। इस प्रकार कितनी ही परिभाषाओं द्वारा स्कन्द के वैदिक स्वरूप को कथा में ढालने का प्रयत्न इस उपाख्यान में पाया जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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