विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 207-212
इस प्रकरण से मिलती हुई एक कथा शांति पर्व के तुलाधार जाजलि संवाद में भी आई।[1] वहाँ भीष्म वक्ता हैं। जाजलि नामक ब्राह्मण ने समुद्रतट पर इतने अधिक समय तक योग और तप किया कि पक्षियों के उसकी जटाओं में घोंसला रख लेने पर भी उसे भान न हुआ। इससे उसमें अहम भाव उत्पन्न हुआ। तब आकाशवाणी हुई, ‘तुम अभी वाराणसी के तुलाधार के समान नहीं हो पाये, उससे जाकर धर्म सीखो।’ जाजलि जब तुलाधार के पास पहुँचा तो पूर्वोक्त पतिव्रता स्त्री की भाँति तुलाधार ने भी पक्षियों वाली बात कही। वैश्य तुलाधार ने जाजलि को धर्म का उपदेश दिया, जिसमें मुख्य आग्रह अहिंसापरक दृष्टिकोण पर था। भूतों के प्रति अद्रोह भाव से जीविका साधना, यही तुलाधार की निष्ठा थी। अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः।। या वृत्ति स परो धर्मस्तेन जीवामि जाजले।[2] कृषि वार्ता आदि जीविका के भौतिक साधनों के पक्ष में इस कथा में प्रौढ़ युक्तियाँ दी गई हैं, और धर्म को कहने-सुनने का विषय न रखकर प्रत्यक्ष अनुभव में लाने पर आग्रह किया गया है: धर्मव्याध और तुलाधार दोनों नूतन भागवत धर्म के दृष्टिकोण के प्रतिनिधि हैं, जिसके द्वारा धर्म के रूढ़िवाद को पिघलाकर पाँचरात्रिकों ने उसे विक्रम की प्रथम सहस्राब्दी के पूर्वार्द्ध में लोकहितकारी धर्म मार्ग के रूप परिणत किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज