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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 207-212
मार्कण्डेय की कही हुई कथाओं में चौथा गुच्छा अग्निवंश और पाँचवां स्कन्द जन्म से संबंध रखता है। अग्निवंश समस्त भारतीय वाङ्मय में अपने ढंग की एक ही साहित्यक कृति है। इसका मूल धरातल नितान्त वैदिक है। वेद के अनुसार सृष्टि का मूल गति तत्त्व है, जिसे अग्नि कहा गया है: ‘एक एवाग्निर्बहुधा समिद्ध’ अर्थात वही एक मूल अग्नि लोक लोकों में बहुत प्रकार से गतिशील दिखाई पड़ रहा है। सृष्टि के परम कारण मूल तत्त्व की संज्ञा निर्विशेष ब्रह्म है, जिसके विषय में सत्-असत्, अमृत-मृत्यु, किसी प्रकार का कोई विशेषण नहीं दिया जा सकता। वह निर्विशेष शुद्ध रस रूप था। उस रस के धरातल पर बल का उदय हुआ। अव्यक्त बलों से युक्त होने पर उस ब्रह्म तत्त्व को परात्पर कहा जाता है। परात्पर ब्रह्म के किसी प्रदेश में माया नामक बल के आविर्भाव से वह ब्रह्म अव्यय पुरुष के रूप में अभिव्यक्त हुआ। अव्यय में सीमा भाव की उत्पत्ति हुई। इस अव्यय से क्रमश: अक्षर और अक्षर से क्षर का विकास हुआ। अक्षर तत्त्व ही प्राण तत्त्व है। प्राण का नाम ही गति है। इसे ही अग्नि कहा गया है। अग्नि तत्त्व को वैदिक भाषा में अंगिरा और आप्य तत्त्व को भृगु की संज्ञा दी गई। अंगिरा और भृगु इन दोनों के पारस्पिरिक संघर्ष से लोकों का जन्म होता है। इस प्रकार वैदिक सृष्टि प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में अग्निवंश नामक इस प्रकरण की कल्पना की गई है। गति, आगति और स्थिति ये तीनों एक ही गति तत्त्व के भेद हैं, जिन्हें इन्द्र, विष्णु और ब्रह्मा कहा जाता है। ब्रह्मा या स्थिति-तत्त्व के धरातल पर अंगिरा या अग्नि-तत्त्व का जन्म हुआ और वहीं एक अग्नि-शक्ति फिर अनेक नाम रूपों से विस्तार को प्राप्त हुई। अग्नि एक है, उसके कर्म अनेक हैं। यहाँ कहा गया है कि ब्रह्मा के पुत्र अग्नि हुए और अग्नि के प्रथम पुत्र अंगिरा। अग्नि और अंगिरा एक हैं। उसी अंगिरा का परिवार बढ़ता हुआ नाना प्रकार की यज्ञीय अग्नियों के रूप में विकसित हुआ, जैसे भरद्वाज अग्नि, भरत अग्नि, वैश्वानर अग्नि, स्विष्टकृत अग्नि, कामाग्नि आदि। इसी प्रसंग में वैदिक पंचजन और ‘त्रीणि पंच-पंच’ अर्थात अव्यय, अक्षर और क्षर की पाँच-पाँच कलाओं का उल्लेख आया है। सब प्राणियों के उक्थ या केन्द्र में अन्तनिर्विष्ट मनु नामक अग्नि भी उसी मूल गति-तत्त्व का विकास है, जिसके कारण विश्व का स्पन्दन या प्राजापत्य विधान चल रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आरण्यक पर्व 207।3
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