विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 196-206
फिर व्याध ने शिष्टाचार धर्म की व्याख्या की। यहाँ शिष्टाचार उस समय का पारिभाषिक शब्द था। समाज में जो श्रुतिस्मृतिप्रतिपादित सत्यधर्म चला आता था, जो शील, नीतिधर्म एवं सदाचार का बद्धमूल आदर्श था, उसी को यहाँ शिष्टाचार कहा गया है। ‘शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां, योगेनान्ते तनुत्याजां, त्यागाय सम्भृतार्थानां, सत्याय मितभाषिणाम्।’ आदि उदात्त शब्दों में महाकवि कालीदास ने जिस आदर्श की घोषणा की थी, वही यह शिष्टाचार-धर्म था। बुद्धिपूर्वक रहने और कर्म करने की जिस जीवन-पद्धति का विकास युगों-युगों के भीतर से भारतीय समाज ने किया था, उसे शिष्टाचार की संज्ञा दी गई और वही धर्म में प्रमाण माना गया। इसे बड़े ही स्पष्ट और दृढ़ शब्दों में कहा गया है: शिष्टाचारो भवेत साधू रागः शुक्लेव वाससि।।[1] अहिंसा, सत्य और सर्वभूत हित को भागवतों ने अपने शिष्टाचार धर्म की मूल प्रतिष्ठा घोषित किया, जिनसे जीवन की विविध प्रवृत्तियाँ चलती हैं। ‘अहिंसा परमो धर्मः’ यह वाक्य भी इस प्रकरण में आया है।[2] शिष्टों को सन्त कहा गया है और उनकी व्याख्या उन्हीं गुणों के आधार पर की गई है, जिन्हें बोधिसत्त्वों के जीवन का आदर्श माना जाता था। अद्रोह, दान, सत्य, दया, करुणा, यह शिष्टाचार-सम्पन्न महात्माओं का सुनिश्चित धर्म है। धम्मपद के शब्दों का[3] अनुकरण करते हुए कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति प्रज्ञा के प्रसाद पर चढ़कर शोक-मोह में डूबी हुई प्रजा के विविध चरित्रों को देखा करता है- (प्रज्ञाप्रासाद मा ह्य मुह्यतो महतो जनान्। प्रक्षन्तो लोकवृत्तानि विविधानि द्विजोत्तम। 198-93)। इसके बाद व्याध ने हिंसा-अहिंसा के तत्कालीन विवाद की रोचक मीमांसा की। वृक्ष, फल, मूल, जल, आदि में सर्वत्र जीवों का निवास है। अतएव पूर्ण अहिंसा का पालन अशक्य ही है। जिस प्रकार लोक का क्लेश न हो, बुद्धिमान वैसी ही वृत्ति अपनावें। इस प्रकार धर्म की बहुविध व्याख्या करके व्याध ने कहा, ‘हे विप्र! सूक्ष्म धर्म मोक्ष धर्म बहुत सुन चुके। अब प्रत्यक्ष धर्म देखो।’ यह कहकर वह उसे वहाँ ले गया, जहाँ उसकी पत्नी वृद्ध माता-पिता की सेवा कर रही थी। उसने कहा, ‘‘इन्द्रादिक, देव चारों वेद और यज्ञ मेरे लिए माता-पिता हैं। तुमने बिना उनकी आज्ञा के घर छोड़ दिया। यह अच्छा नहीं किया। अब लौटकर उन्हें प्रसन्न करो और महान गृहस्थ धर्म का उल्लंघन मत करो।’ इस कथा में जन्म के व्याध से वेदपाठी ब्राह्मण को उपदेश विलक्षणता है। गृहस्थाश्रम का उल्लंघन करके संसार का कल्याण करने के लिए वैरागी बनने की इसमें भर्त्सना की गई है। उस युग में मुण्डक बनने की जो महाव्याधि लोक में फैल गई थी, उसके विरुद्ध भागवतों ने गार्हस्थ्य के दुर्ग को अनेक प्रकार से सुदृढ़ बनाया। अहिंसा आदि जो सद्गुण विपक्षियों के तरकश के तीर थे, उन सबको उन्होंने जी खोलकर अपना लिया, यहाँ तक की पुलिन्द पुक्कसों के लिए भी अपने द्वार खोलकर जाति-संबंधी कट्टरता पर प्रहार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज