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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 196-206
कौशिक नाम का ब्राह्मण वन में वृक्ष के नीचे मंत्र पाठ कर रहा था। वृक्ष के ऊपर बैठी हुई किसी बगुली ने उस पर बीट कर दी। मुनि ने क्रोध से उसकी ओर देखा तो वह बगुली भस्म होकर नीचे गिर पड़ी। वह ब्राह्मण अपने उस क्रोध में कुछ क्षुब्ध होकर भिक्षा के लिए एक गाँव में गया। वहाँ उसके ‘भिक्षां देहि’ का उच्चारण करने पर घर की पत्नी ने कहा, ‘ठहरो’, और यह कहकर वह थककर तुरन्त आये हुए अपने पति की सेवा में लग गई। ब्राह्मण को छोड़कर उसने पहले अपने पति को पाद्य, आचमनीय, आसन, आहार आदि दिये और फिर ब्राह्मण का स्मरण आने पर भिक्षा लेकर आई। ब्राह्मण ने तमककर कहा, ‘तुमने मुझे इतनी देर क्यों ठहराया?’’ पतिव्रता ने उसका भाव समझकर कहा, ‘आप मुझे क्षमा करें। मेरे लिये मेरा पति ही महान देवता है। उसे क्षुधित और श्रांत जानकर मैंने पहले उसकी शुश्रूषा की। मैं ब्राह्मणों का अपमान नहीं करती। केवल पति-शुश्रूषा को अपने लिए सर्वोत्तम धर्म मानती हूँ। हे द्विजवर, मेरे ऊपर क्रोध मत करो। मैं वह बगुली नहीं हूँ, जो तुम्हारे रोष से दग्ध हो गई थी। क्रोध मनुष्यों का भारी शत्रु है। जो क्रोध और मोह को जीत लेता है, जो सत्य बोलता है, जितेन्द्रिय है, कष्ट पाने पर भी प्रतिहिंसा नहीं करता, उसे ही देवों ने ब्राह्मण कहा है। हे भगवन, ज्ञात होता है कि आप धर्म का तत्त्व नहीं जानते। इसलिए आप वहाँ जाइए, जहाँ मिथिला में माता-पिता की शुश्रूषा करने वाला सत्यवादी जितेन्द्रीय धर्मव्याध रहता है। वह आपको धर्म सिखायेगा।’ पतिव्रता के वचन सुनकर ब्राह्मण सन्नाटे में आ गया, विशेषकर उस बगुली वाली बात से। वह मिथिला में धर्मव्याध के पास पहुँचा। व्याध ने देखते ही उसका स्वागत किया और कहा, ‘आइये, आपको उस पतिव्रता ने भेजा है।’ यह कहकर वह उसे अपनी दुकान से घर ले गया। उसका स्वागत-सत्कार करके व्याध ने उससे स्वधर्म की व्याख्या की, ‘‘मांस-विक्रय मेरा कुलोचित कर्म है, जो पिता-पितामह से मुझे प्राप्त हुआ है। मैं उसी का पालन करता हूँ। अपने वृद्ध माता पिता की शुश्रूषा करता हुआ सत्य बोलता हूँ। किसी से ईर्ष्या नहीं करता। यथाशक्ति दान देता हूँ। अतिथि और भृत्यों को भोजन कराकर अवशिष्ट-भाग स्वयं खाता हूँ। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य ही लोक का जीवन है। दण्डनीति और त्रयीविद्या से ही लोकव्यवहार चलता है। राजा का स्वधर्म प्रजा का पालन करना है। सब लोग स्वकर्म में निरत रहते हैं, लोकव्यवहार सुरक्षित रहता है। मैं स्वयं प्राणि-हिंसा नहीं करता। इस समय धर्म के रूप में कितने ही अधर्म घास-फूस से ढके हुए कुँओं के समान लोक में फैले हैं। वे इन्द्रियदमन और पवित्रता का प्रलाप धर्म के नाम से करते हैं, किन्तु वे शिष्टाचार से शून्य हैं।’’ इस प्रकार व्याध ने सर्वप्रथम भागवतों के उस दृष्टिकोण की व्याख्या की, जिसमें स्थिति भेद से प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वकर्म ही सबसे बड़ा धर्म कहा गया था। काषाय वस्त्र पहनकर जीवन की समस्या का समाधान करने का जो सार्वजनिक मोह धर्म के रूप में फैला हुआ था, स्वधर्म पालन का आग्रह उसी का प्रत्युत्तर था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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