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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 89-153
वस्तुत: हिमालय में गंगा के भूगोल का विशद परिचय प्राचीन भूगोलवेत्ताओं को था। आगे चलकर कनखल और उसके समीप गंगा का पुनः विस्तृत उल्लेख[1] किया गया है। वहीं विशालबदरी और यक्षेन्द्र माणिभद्र की पुरी एवं यक्षराज कुबेर की पुरी का उल्लेख[2] है। इस स्थान का प्राचीन नाम मन्दरगिरि या मन्दराचल था। कुबेर की अलकापुरी और माणिभद्र या माणिचर यक्ष की राजधानी माणा आज तक बदरी-केदार के भूगोल की जानी-पहचानी संज्ञाएं हैं। हिमालय के इस प्रदेश में गंगा को सप्तविधा कहा है।[3] हिमालय की अधित्यका में गंगा की जो कई शाखा-नदियाँ हैं, उन्हीं को लक्ष्य करके प्राचीन भारतीय भूगोल का ‘सप्तसंगम्’ प्रयोग प्रसिद्ध हुआ। गंगा नाम देवप्रयाग से आरम्भ होता है, जो कि हिमालय में पाँचवां प्रयाग है। यामुन पर्वत (वर्तमान बंदरपूंछ) से लेकर नन्दादेवी तक गंगा का प्रस्रवण-क्षेत्र फैला है। उसके पूर्व और पश्चिम दो भाग हैं। पूर्व के क्षेत्र में बदरीनाथ की ओर से विष्णु गंगा आती है, जिसे सरस्वती भी कहते हैं, और द्रोणगिरि के समीप पश्चिम से धौलीगंगा की धारा आई है, जो जोशीमठ के पास विष्णुगंगा में मिलती है। उस संगम का नाम विष्णु प्रयाग है। इससे कुछ की पहले नन्दादेवी पर्वत से आने वाली ऋषिगंगा धौलीगंगा को मिली है। विष्णुप्रयाग के बाद संयुक्त धार अलकनन्दा कहलाती है। कुछ दूर आगे चलकर नन्दाकना पर्वत से आई हुई नन्दाकिनी अलकनन्दा में मिली है। इस दूसरे प्रयाग का नाम नन्दप्रयाग है। तीर्थयात्रा पर्व में गंगा के प्रस्रवण-क्षेत्र का वर्णन करते हुए नन्दा और अपरनन्दा इन दो नदियों का उल्लेख आया है। नन्दा के स्रोत का नाम ऋषभकूट महागिरि था, जिसका दर्शन अशक्य और अधिरोहण अत्यन्त दुर्गम कहा गया है। इस ऋषभकूट की पहचान नन्दादेवी से होनी चाहिए, जिसकी ऊँचाई 25,650 फुट है और जो हिमालय की ऊँची चोटियों में अत्यन्त ठाड़ी और दुर्दान्त है। उस प्रकार ऋषभकूट पर्वत या नन्दादेवी से निकलने वाली ऋषिगंगा नदी नन्दा होनी चाहिए और नन्दाकना से आने वाली नदी अपरनन्दा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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