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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 80-83
इस प्रकरण के आरम्भ में ही तीर्थ के आध्यात्मिक दृष्टिकोण की व्याख्या की गई है। जिसके हाथ, पैर और मन सुसंयत हैं, जिसमें विद्या तप और कीर्ति है, वह तीर्थ का फल पा लेता है। जो दान नहीं लेता, आत्मसंतोषी, पवित्र, नियमों का पालन करने वाला और अंहकार से रहित है, वह तीर्थ का फल पाता है। जो दम्भरहित, त्यागी, जितेन्द्रिय, स्वल्पाहारी और सब दोषों से मुक्त हैं, वह तीर्थ का फल पाता है। क्रोधरहित, सत्यशील, व्रतों में दृढ़ और सब प्राणियों को समान जानने वाला मनुष्य तीर्थ का फल पाता है।[1] पुलस्त्य-तीर्थ-यात्रा-पर्व के अन्तर्गत भूगोल का क्षेत्र अधिक विस्तृत हो गया है। कितने ही नए तीर्थों के नाम उसमें आते हैं। वे स्थान जिनकी पहचान निश्चित है, ये हैं- पुष्कर, पुष्कारण्य (पुष्करणा), जम्बू (अर्बुद पर्वत पर), महाकाल, नर्मदा, दक्षिण सिन्धु, चर्मवती, अर्बुद, प्रभास, सरस्वती सागर-संगम, द्वारावती (द्वारका), पिंडारक एवं सिन्धु और समुद्र का संगम। इसके बाद उत्तर दिशा में इन स्थानों के नाम हैं- पंचनद, देविका (पंजाब की देग नदी), विनशन (मरुपृष्ठ पर सरस्वती के अदर्शन का स्थान), कुरुक्षेत्र, पुंडरीक (वर्तमान पुंडरी), सर्पदमन (सफीदों), आपगा नदी (स्यालकोट की अयक नदी), कपिष्ठल (कैथल), दृषद्वती (घग्घर), व्यासस्थली, विष्णुपद, सप्त-सारस्वत-तीर्थ, पृथूदक (पिहोवा) और सन्निहिती (कुरुक्षेत्र का सन्निहित ताल)। इसके अनन्तर हिमालय के कुछ पुराने तीर्थों के नाम हैं, जैसे गंगाद्वार, कनखल, गंगा (धौली गंगा) और सरस्वती (विष्णु गंगा) का संगम (वर्तमान विष्णु प्रयाग), रुद्रावर्त (रुद्र प्रयाग), भद्रकणेश्वर (कर्ण प्रयाग), यमुनापर्वत (बन्दर पूंछ), सिन्धु का उद्गम, ऋषिकुल्या (ऋषिगंगा) और भृगुतुंग (तुंगनाथ)। पूर्व दिशा के तीर्थों में कई नाम ऐतिहासितक महत्त्व के हैं- गोमती-गंगा-संगम, (काशी के समीप मार्कण्डेय स्थान), योनिद्वार (गया का ब्रह्मयोनि तीर्थ), गया, फल्गु, राजगृह, तपोद (राजगृह में गरम पानी के चश्मे), मणिनाग (राजगृह में मणियार नाग का मठ), जनकपुर, गंडकी, विशाला नदी (सम्भवतः वैशाली), नारायण तीर्थ (गंडकी नदी के किनारे जहाँ से शालिग्राम की बटिया आती हैं), कौशिकी (कोसी), चम्पारण्य (चम्पारन), गौरी शिखर (गौरीशंकर चोटी), ताम्रा और अरुणा नदी का संगम, कौशिकी (सुन कोशी और अरुणा का संगम), कोकामुख-तीर्थ (ताम्रा, अरुणा और कौशिकी इन तीनों के संगम के समीप), चम्पा (भागलपुर), संवेद्या तीर्थ (सदिया), लोहित्य (आसाम की लोहित नदी), कस्तोया (बोगरा की प्रसिद्ध नदी, जो गंगा की धारा पद्मा में मिलती है), और अन्त में गंगा और सागर का संगम, जिसे आज भी गंगा-सागर कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आरण्यक 80।30-33
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