विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 50-78
जागने पर दमयन्ती अपने को अकेला पाकर अनेक प्रकार से विलाप करने लगी। वह उस निर्जन स्थान में किसी प्रकार आगे बढ़ी। वह घोर विन्ध्याटवी का प्रदेश था। बेतवा के दोनों किनारों पर दूर तक फैला हुआ यह प्रदेश भारतीय इतिहास में आटविक राज्य नाम से विख्यात रहा है। यह महाघोर अटवी झांसी के दक्षिण से शुरू होकर बीना-सागर तक फैला हुआ विन्ध्याचल का जंगल होना चाहिए। इसे महाभारतकार ने महारण्य, महघोर वन या दारुण वन भी कहा है। यहीं पर एक बड़ा पर्वत[1] था, जो विन्ध्याचल होना चाहिए। इसी प्रसंग में नल को नरवरोत्तम भी कहा गया है। इसी से निषध जनपद की राजधानी नरवरगढ़ कहलाई। दमयन्ती ने विलाप करते हुए वनदेवता, गिरि-देवता और नदी देवता का स्मरण किया और सहायता के लिए अनेक प्रकार से उन्हें पुकारा। अन्त में उसे एक महासार्थ दिखाई पड़ा, जो बेंतों से भरी एक विस्तीर्ण नदी पार कर रहा था। यह वेत्रवती नदी होनी चाहिए। इसी नदी को पार करके वह सार्थ चेदि जनपद की ओर जा रहा था। सार्थ का यह वर्णन संस्कृत साहित्य में अद्वितीय है। पाँच-पाँच सौ छकड़ों पर व्यापार का सामान लाद कर देश के एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा करने वाले सार्थवाह यहाँ की समृद्धि और संस्कृति के मूल स्तम्भ थे। इस महासार्थ का नेता अनेक सार्थवाह वणिजों का स्वामी था। उसके सार्थ में वेदपारग ब्राह्मण, वणिक, युवा, स्थविर, बाल और अनेक पदाति जन थे। उसमें बैल, गधे, ऊंट, घोड़े, हाथी बहुत अधिक संख्या में चल रहे थे। वह सार्थ-मंडल मनुष्यों का समुद्र (जनार्णव) सा जान पड़ता था। वह सार्थ यक्षराज मणिभद्र का भक्त था। मणिभद्र पद्मावती (ग्वालियर राज्य में पवाया) का प्रधान देवता था, जहाँ उसकी महाकाय पाषाण प्रतिमा प्राप्त हुई है। अनुमान होता है कि सार्थ पद्मावती से चलकर बेतवा पार करके चेदि देश अर्थात सागर-जबलपुर की ओर जा रहा था। दमयन्ती भी उसी सार्थ के संग चलने लगी। रात में सार्थ ने नदी के कछार में पड़ाव डाला। संयोग से जंगली हाथियों का झुंड पानी पीने के लिए उधर आ निकला और उसने मार्ग में पड़े हुए सार्थ को रोंद डाला। दमयन्ती ने अपने-आपको ही इस दुर्भाग्य का कारण समझकर बहुत विलाप किया। अगले दिन बचे हुए लोग पुनः यात्रा करने लगे और सायं काल के समय दमयन्ती भी चेदिराज की राजधानी में पहुँच गई। वहाँ राजमाता ने प्रासादतल से उसे देखकर समीप बुलवाया और अपने पास रख लिया। दमयन्ती राजकुमारी सुनन्दा के साथ रहने लगी। उसने सैरन्ध्री का कर्म करना स्वीकार किया। उधर नल घोर जंगल में प्रविष्ट हुआ। उसने कर्कोटक नाग को देखा। नाग ने अपने विष के प्रभाव से उसका वर्ण काला कर उसका आकार छिपा दिया। उसके कहने से नल अयोध्यानगरी में जाकर राजा ऋतुपर्ण के यहा अश्वाध्यक्ष के पद पर नियुक्त हो गया। यहाँ महाभारतकार ने अश्वाध्यक्ष का वेतन सौ शतमान[2] प्रति मास अर्थात पौने चार हजार कार्षापण कहा है, जो कौटिल्य में कहे हुए अश्वाध्यक्ष के वेतन अर्थात चार हजार कार्षापण वार्षिक से लगभग मिल जाता है। उधर दमयन्ती के पिता भीम ने नल और दमयन्ती को ढूंढने के लिए ब्राह्मणों को चारों ओर भेजा। सुदेव नामक ब्राह्मण ने चेदिपुरी में पहुँच कर दमयन्ती को उसके भ्रूमध्य में कमल के समान सुशोभित सुनहली झलकवाले लहसुन के निशान (पिप्ल) से पहचाना और राजमाता की आज्ञा से उसे विदर्भ नगर में ले आया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज