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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 50-78
दूसरी ओर पर्णक नाम के ब्राह्मण ने अयोध्या नगरी पहुँचकर दमयन्ती के बताये कुछ श्लोक पढ़े, जिनका उत्तर बाहुक नामधारी नल ने दिया। उस सूत्र को लेकर वह दमयन्ती के पास लौट आया। दमयन्ती तत्त्व को समझ गई। उसने अपनी माता से परामर्श किया और सुदेव नामक ब्राह्मण को संदेश लेकर अयोध्या भेजा, ‘‘हे सुदेव! तुम जाकर ऋतुपर्ण से कहो कि दमयन्ती दूसरा पति करना चाहती है। उसके लिए स्वयंवर हो रहा है। तुम कल तक वहाँ पहुँचो। पता नहीं, उसका पति नल अभी जीता है या मर गया।’’ सुदेव के वचन सुनकर ऋतुपर्ण ने विदर्भ जाना निश्चित किया और नल से कहा, ‘‘मुझे तुम एक दिन में अपनी अश्वविद्या की चातुरी से विदर्भ पहुँचाओ।’’ सब स्थिति समझकर पहले तो नल को बड़ी चोट लगी, फिर उसने राजा की आज्ञा से अपने स्वार्थ के लिए वहाँ जाना ठीक समझा। उसने राजा की अश्वशाला से लक्षणवान, तेज-बल समायुक्त, कुलशीलसम्पन्न घोड़ों को चुनकर रथ सजाया और अपने कौशल से सायंकाल तक विदर्भ पहुँच गया। मार्ग में राजा ऋतुपर्ण ने उसे अक्षविद्या सिखाई। ऋतुपर्ण को देखकर भीम चकित हुए, क्योंकि उन्हें अपनी स्त्री और पुत्री के उस गुह्य मंत्र का कुछ पता न था। फिर भी उन्होंने ऋतुपर्ण की आवभगत की। ऋतुपर्ण ने वहाँ स्वयंवर की कोई धूमधाम ने देखकर मन में समझ लिया और भीम से कहा कि मैं केवल आपका अभिवादन करने के लिए चला आया था। इधर दमयन्ती ने रथशाला में ठहरे हुए नल के पास अपनी दासी कोशनी को भेजा और फिर अपने पुत्र-पुत्री को भेजा। नल ने देखते ही उन्हें गोद में उठा लिया। जब कई युक्तियों से दमयन्ती को निश्चय हो गया कि नल आ गए हैं, तब उसने अपने माता-पिता को सूचित कर दिया और उनकी आज्ञा लेकर पुत्र-पुत्री के साथ नल से मिली। मिलकर दोनों शोक और हर्ष से विह्वल हो गए। इस प्रकार चौथे वर्ष में अपने पति से मिलकर दमयन्ती ऐसे हर्षित हुई, जैसे आधी उगी हुई, कृषि से युक्त भूमि वर्षा के आने से प्रफुल्लित होती है। अगले दिन नल और दमयन्ती ने भीम की वन्दना की। वहाँ सब लोग प्रसन्न हुए। राजा ऋतुपर्ण ने भी नल से अज्ञातवास के समय अनजान में किये हुए किसी भी असत्कार के लिए क्षमा मांगी। नल ने अत्यन्त हार्दिक भाव से ऋतुपर्ण के प्रति अपना आभार प्रकट किया और कहा कि मैं तो स्वगृह की तरह ही आपके गृह में ठहरा। तब उसने अपनी अश्वविद्या ऋतुपर्ण को प्रदान की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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